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श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ
सम्यगदर्शन के दोनों रूपों का सन्तुलन आवश्यक :
इसीलिए निश्चित है कि निश्चय - सम्यग्दर्शन साध्य (लक्ष्य) है और व्यवहार सम्यग्दर्शन उस निश्चय सम्यग्दर्शन को प्राप्त करने के लिए साधन है। अतः जो व्यवहार से विमुख होकर निश्चय को प्राप्त करना चाहता है वह विवेक मूढ़ बीज, खेत, पानी आदि के बिना ही अन्न उत्पन्न करना चाहता है। जैसे केवल निश्चय ठीक नहीं है वैसे केवल व्यवहार भी अच्छा नहीं। दोनों का समन्वय और संतुलन अभिष्ट है।
यद्यपि व्यवहार नय को अभूतार्थ कहा गया है, तथापि इसे सर्वथा निषिद्ध नहीं माना गया। धर्म के पहले सोपान पर पैर रखने के लिए व्यक्ति को व्यवहार सम्यगदर्शन का अवलंबन लेना ही पड़ता है। जैसे नट एक रस्सी पर स्वछंदता पूर्वक चलने के लिए पहले पहल बांस का सहारा लेता है किन्तु जब उसमें अभ्यस्त हो जाता है तब बांस का सहारा छोड़ देता है। इसी प्रकार धीर मुमुक्षु को निश्चय की सिद्धि के लिए पहले व्यवहार का अवलंबन लेना पड़ता है। जब निश्चय में निरालंबन पूर्वक रहने में समर्थ हो जाता है तब व्यवाहार स्वयमेव छूट जाता है। फिर भी व्यवहार सम्यगदर्शन का लक्ष्य निश्चय सम्यगदर्शन होना चाहिए। जैसे किसी ऊपर की मंजिल तक जाने के लिए सीढ़ियां चढ़ना आवश्यक होता है, मंजिल तक पहुँचने पर सीढ़ियां अपने आप पीछे छूट जाती है वैसे ही व्यवहार सम्यक्त्व सीढ़ी है और निश्चय सम्यक्त्व मंजिल है।
नदी के उस पार तक जाने के लिए नाव का सहारा आवश्यक है। यात्री नाव का आश्रय तब तक लेता है, जब तक किनारा नहीं आ जाता। इसी प्रकार व्यवहार सम्यक्त्व नाव है और निश्चय सम्यक्त्व किनारा । किनारा आने पर नाव सहज रूप में छूट जाती है यही स्थिति व्यवहार सम्यक्त्व से निश्चय सम्यक्त्व में आने की है। सर्वप्रथम व्यवहार सम्यक्व आवश्यक :
अनादि काल से अज्ञान में पड़ा हुआ जीव व्यवहार के उपदेश के बिना समझता नहीं है। अतः गुरुदेव उसे समझाते हैं - "आत्मा चैतन्य स्वरूप है, किन्तु वर्तमान में कर्म जनित पर्याय से युक्त है। इसलिये व्यवहार में उसे देव, मनुष्यादि कहते है। इस प्रकार कहने से वह समझ जाता है, निश्चय से तो आत्मा चैतन्य स्वरूप ही है। किन्तु स्थूल बुद्धि पुरुष को समझाने के लिए गति-जाति के द्वारा आत्मा का कथन किया जाता है। जो निश्चय बुद्धि से विमुख या निर्पेक्ष व्यवहार का आश्रय लेता है, वह शुद्ध चैतन्य रूप आत्मा के श्रद्धानुरूप निश्चय सम्यग्दर्शन से विमुख होकर केवल व्यवहार सम्यग्दर्शन में ही रचा-पचा रहने वाला मोक्ष स्वरूपी परमार्थ से भ्रष्ट हो जाता है। शुद्धोपयोग - मोक्ष - मार्ग से प्रमादी हो जाता है। शुभोपभोग में संतुष्ट रहता है। ऐसा व्यवहार जो निश्चयोन्मुख न हो, व्यवहाराभास कहलाता है।
अतः एकांत व्यवहार का आश्रय लेकर व्यवहाराभास व्यवहार के चक्कर में पड़कर अपने आत्म लक्ष्य को भूल बैठना ठीक नहीं। इसी प्रकार एकांत निश्चय सम्यग्दर्शन का अवलंबन लेकर शुद्ध व्यवहार - सम्यग्दर्शन को छोड़ बैठना भी हितकर नहीं। निश्चय और व्यवहार सम्यग्दर्शन दोनों एक दूसरे के पूरक हैं। दोनों का समन्वित और संतुलित रूप ही शास्त्रीय दृष्टि से श्रेयष्कर है। लेकिन व्यवहार भी तभी तक ग्राह्य है, जब तक कि वह परमार्थ दृष्टि से साधना में सहायक हो। सही स्थिति तो यह है कि भिन्न भिन्न भूमिकाओं की दृष्टि से सम्यग्दर्शन के ये दोनों ही रूप ग्राह्य है। सम्यग्दर्शन के विभिन्न लक्षण : विभिन्न प्रयोजनों से :
पृथक् - पृथक मुख्य प्रयोजन की अपेक्षा से सम्यग्दर्शन के ये विभिन्न लक्षण कहे गये है। जहां "तत्वार्थ श्रद्धान" लक्षण कहा गया है, वहां प्रयोजन यह है कि जीव आदि तत्वों को पहचाने। यर्थात वस्तु स्वरूप तथा अपने हिताहित को श्रद्धान करके मोक्ष मार्ग में आगे बढ़े।
"स्व-पर भेद श्रद्धान" लक्षण कहने का प्रयोजन है। पर द्रव्य में रागादि न करें किन्तु जहां "आत्म श्रद्धान" लक्षण कहा है, वहां भी प्रयोजन यह है कि 'स्व' को 'स्व' जाने और 'स्व' में 'पर' का विकल्प न करें।
जहां "देव, गुरु, धर्म का श्रद्धान" लक्षण बताया है, वहां बाह्य साधन की प्रधानता है। अरहंत देव आदि का श्रद्धान सच्चे तत्वार्थ श्रद्धान का कारण है।
इस प्रकार भिन्न भिन्न प्रयोजनों को लेकर सम्यग्दर्शन के ये पृथक-पृथक लक्षण कहे है। किन्तु सब का लक्ष्य एक ही है - शुद्धात्म स्वरूप का निश्चय एवं श्रद्धान करके मोक्ष प्राप्त करना, आत्मा का कर्म बंधन से सर्वथा मुक्त एवं शुद्ध होना।
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हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति
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