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श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ
वास्तव में बात यह है कि अनादिकालीन कर्म बंधन और अपनी संसाराभिमुखी प्रवृत्ति के कारण आत्मा अपने स्वरूप को भूल बैठा है। उसे अपने पर विश्वास नहीं रहा, कर्म की शक्ति के समक्ष दीनता-हीनता का अनुभव करता है।
आत्मा अपने स्वरूप और शक्ति को कैसे भूल गया ? इस तथ्य को समझने के लिए एक रूपक लीजिये। मान लो, एक वेश्या है, या कोई रूपवती स्त्री है। उसके मनमोहक रूप से आकृष्ट एवं विमुग्ध होकर एक पुरुष उसके वशीभूत हो जाता है। वह इतना परवश हो जाता है कि अपनी शक्ति को भूल कर उस नारी को ही सर्वस्व समझता है। उसी के चंगुल में फंसता रहता है। लेकिन एक दिन उसे अपने और उस नारी के असली स्वरूप का भान हुआ, अपनी शक्ति पर विश्वास हुआ और वह नारी के मोहपाश से छूट गया।
यही स्थिति जीव और कर्म पुद्गल की है। जीव पर मोह/ममत्व-बुद्धि/अहंत्व - बुद्धि का आवरण इतना जबरदस्त है कि इसके कारण वह कर्म पुद्गलों के अधीन हो जाता है। अपनी शक्ति और स्वरूप को भूल जाता है। परन्तु जिस क्षण वह अपने स्वरूप और अनन्त शक्ति को पहचान लेता है, उसे स्व स्वरूप की उपलब्धि हो जाती है। उसी क्षण वह कर्म पुदगलों के चंगुल से छूट जाता है। फिर वह बंधन बद्ध नहीं रहता। निश्चय - सम्यगदर्शनः कब/क्या/कैसे ?
निश्चय - सम्यक्त्व तब होता है जब अनन्तानुबंधी 1.क्रोध, 2. मान, 3. माया और 4.लोभ तथा 5. मिथ्यात्व मोहनीय, 6.सम्यक्त्व मोहनीय और 7. मिश्र मोहनीय। मोह कर्म की इन 7 प्रकृतियों का क्षय/क्षयोपशम अथवा उपक्षम हो जाता है।
शुद्ध जीव (आत्मा) का अनुभव - निश्चय हो जाना, निश्चय सम्यगदर्शन है। शुद्ध आत्मा (जीव) के अनुभव को रोकने वाला मोहनीय कर्म, खास तौर से दर्शन मोहनीय (सम्यक्त्व-मिथ्यात्व-मिश्रमोहनीय) और अनन्तानुबंधी (कषाय) कर्म है। इसलिए दर्शन मोहनीय (त्रिक) कर्म और अनन्तानुबंधी कषाय के उपशम, क्षय और क्षयोपशम होने से शुद्ध आत्मा अनुभव, साक्षात्कार या प्रत्यक्षीकरण होता है। इस आत्मानुभव को स्वरूपाचरण चारित्र कहा गया है। यह स्वरूपाचरण चारित्र या आत्मा अनुभव ही निश्चय-सम्यग्दर्शन का हार्द है।
निश्चय-सम्यगदर्शन को पहचानने के ये लक्षण हैं - "आत्मा को अपने आत्मतत्व का भान हो जाता है, अर्थात आत्मा - अनात्मा (चेतन-जड़ या जीव - अजीव) का भेद विज्ञान हो जाता है। आत्मा जब अनादि सुषुप्त अवस्था से जागृत होकर अपना वास्तविक स्वरूप पहचान जाता है, तब पर पदार्थों से मोह छूटने लगता है। स्व - स्वरूप में रमण होने लगता है। धीरे धीरे देह में रहते हुआ भी देहध्यान छूट जाता है।
निश्चय - सम्यग्दर्शन की स्थिति को समझने के लिए एक रूपक लीजिये - एक बार एक गडरिया भेड़ बकरियां चराने के लिए जंगल में गया। संध्या के झुटपुटे में जब वह भेड़ों को गाँव की ओर वापस लौटा रहा था, तभी उसने एक झाड़ी के पास एक सिंह - शिशु को बैठे हुए देखा। उसकी माँ (शेरनी) उस समय वहां नहीं थी। उसने करुणावश बच्चे को उठा लिया और भेड़ बकरियों के साथ रख लिया। उसको दूध पिला पिला कर बड़ा किया। सिंह का बच्चा भी अपने वास्तविक स्वरूप को न जानने के कारण भेड़ बकरियों की तरह चेष्टाएँ करने लगा। उन्हीं की तरह खाता - पीता सोता और चलता था।
एक बार जिस जंगल में भेड़ बकरियां और यह सिंह शिशु विचरण कर रहे थे, उसी जंगल में एक बब्बर शेर आ गया। उसने जोर से गर्जना की, जिसे सुनकर सभी भेड़-बकरियां भयभीत होकर भाग खड़ी हुई। उनके साथ वह सिंह शिशु भी भाग गया।
एक दिन वह सिंह शिशु उन भेड़ बकरियों के साथ नदी के किनारे पानी पी रहा था तभी अचानक अपनी परछाई पानी में देखकर सोचने लगा कि मेरा आकार और रंग रूप तो मेरे इन साथियों से मिलता ही नहीं, दूसरी तरह का है। जैसा कि गर्जना करने वाले उस शेर का था। क्या मैं भी उसी तरह गर्जना कर सकता हूँ? यह सोचकर उसने अपनी पूरी ताकत लगाकर जोर से गर्जना की। उसकी गर्जना सुनते ही भेड़-बकरियां भाग गई। वह सिंह शिशु अकेला ही रह गया। अब उसकी समझ में आया कि “मैं तो प्रचण्ड शक्ति का धनी वनराज हूं ये सब मुझसे डरते है। अतः वह अब अकेला ही निर्भय होकर वन में रहने लगा।
हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्द्रज्योति 108 हेमेन्द्रज्योति* हेमेन्द्र ज्योति
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