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की राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन थ।
ही अपने आचार विचार की नींव बनाता था। अनुयायी भले ही जैन कहलावें, किन्तु जो श्रमणों की सेवा में आगे बढ़कर स्वयं को स्वसंयम की ओर मोडता था वह "श्रावक - श्राविका" कहलाते थे। महिला साधु वर्ग – 'आर्यिका' संघ या श्रमण संघ कहलाता था।
स्वसंयम द्वारा श्रावक-श्राविका अपने को श्रावकाचार की भूमिका में दक्ष बनाते थे, तथा आगे बढ़कर साधुत्व स्वीकार करने पर 'मूलाचार' की भूमिका में दक्ष होते थे। इसके सिवा सत्य को पाने की अन्य कोई राह न थी, न है। संसार में मोह के वशीभूत होकर प्रत्येक जीव रागद्वेष करता है और ठगा जाता है जबकि अपना स्वयं का ही शरीर जिससे मनुष्य तथा प्रत्येक प्राणी सब से अधिक मोह रखता है वह भी उसके अनुकूल नहीं रहता। संसार के सारे झगड़े, सारी समस्यायें, सारे कष्ट इसी मोह के कारण हैं जो भावों में कलिलता कलुषता लाकर संसार के भ्रमण को बढ़ाता है। यही मोह कर्मों के बंधन में डालने वाली जंजीर है। इससे छूटने का उपाय स्वसंयम के सिवाय और कोई संभव नहीं है। इस सिद्धांत को प्रत्येक प्राणी, प्रत्येक मनुष्य अपने जीवन के अंतिम क्षणों तक समझ ही लेता है किन्तु तब कोई बचाव की स्थिति शेष नहीं रह जाती। ज्ञानी व्यक्ति इसका निदान सहर्ष स्वयं के चयन से अपनी सीमा शक्ति के अनुसार क्रमशः बढाता है। तब उसे स्वयं को अपनी उस सामर्थ्य वृद्धि पर हर्ष होता है और वह उत्साह से आगे प्रगतिशील बनकर संयम बढ़ाते हुए व्रती ओर महाव्रती बनकर तपस्वी बन जाता है। संसार उससे बहुत पीछे छूट जाता है। अब उसे संसार छूटने का दुख नहीं रहता। जबकि सामान्य संसारी से यदि कोई सामान्य वस्तु भी छीने तो उसे भारी दुःख (मानसिक) होगा।
स्वसंयम की इस प्रगति हेतु कर 'श्रावकाचार द्वारा प्रत्येक सामान्य मनुष्य के लिए छ: आवश्यक बतलाये गये है-देवपूजा (अरहंतों एवं सिद्ध भगवान की पूजा) गुरु उपासना, स्वाध्याय, संयम, तप और दान। गुरुओं में आचार्य, उपाध्याय एवं सर्व साधुओं के साथ साथ प्रत्येक सच्चा मार्गदर्शक भी जाना जाता है यथा उच्च श्रावकादि। संयम द्वारा श्रावक (गृहस्थ) अपनी आवश्यकताओं और सांसारिक सुख आकांक्षाओं को सीमित करते हुए अपनी तप क्षमता को बढ़ाता है। 12 प्रकार के तपों द्वारा वहीं गृहस्थ अपने भावों की विशुद्धि बढाते हुए कायक्लेश, क्षमता को उठाता है। (श्री दौलतरामजी की छः ढाला में बहुत ही सुंदर शब्दों में प्रत्येक सामान्य व्यक्ति के समझने हेतु निरूपित करती है। इस तपोमति हेतु उसे कोई बाध्य नहीं करता। इसीलिए जैन धर्म व्यक्ति परक धर्म है इसे कोई भी अंगीकार कर सकता है। इसका प्रचार करके जिस प्रकार ईसाई, मुसलमान, सिख, बौद्ध अथवा आर्य समाजी बनाये जाते है- 'जैन' बनाए नहीं जाते, भले ही कोई स्वयं चाहे तो 'जैन' बन सकता है। इसके तपमार्ग को बिरले ही अपना पाते है। जिसमे उपवासों को प्रधानता है। उपवास का सामान्य अर्थ है (उप = आत्मा) आत्मा में लीन होना। किन्तु इससे पहले आत्मा को समझना और उपवास की भूमिका पाना आवश्यक है। यह क्रमशः उपलब्धि है। अष्टमी चतुर्दशी को आहार संयम में सर्वप्रथम (सरलतम एकबार भोजन) एकासन कहा गया है। जो मधु, मद्य, मांस के सेवन का संपूर्ण निषेध करता है। इसी के अंतर्गत नशीली समस्त वस्तुओं गुटका, पान, सिगरेट, चाय, काफी आदि तथा अनछने पानी और रात्रि भोजन का त्याग भी आ जाता है। इसके कारण शरीर परिमार्जित होकर स्वस्थ तथा प्रक त महसूस करता है। त्याग की भूमिका में आत्मबल, करुणा उत्साह तथा सौम्यता बढ़ती है। अर्थात एकासन (एक आसन) से पहले भी व्यक्ति रात्रि भोजन तथा जलाधि सेवन त्यागता है। इसके लिए व्यक्ति समय सीमा बांधकर प्रयास करता है अथवा दोनों (एकासन तथा रात्रि भोजन त्याग) का प्रयास करता है। जब ये सही सही होने लगते है तब अगले कदम में “रस त्याग” जो किसी एक रस को अथवा प्रतिदिन एक रस को त्यागकर किया जाता है। इसके अंतर्गत सोमवार को हरी सब्जियों, साग, फलों की सीमितता अथवा पूर्ण त्याग, मंगलवार को मीठे का त्याग, बुधवार को घी का त्याग, गुरुवार को दूध का त्याग, शुक्रवार को खटाई का त्याग, शनिवार को तेल तथा रविवार को नमक का त्याग करता है। इससे शरीर हलका हो जाता है। जबसे व्यक्ति की स्वसंयम की भूमिका प्रारम्भ होती है वह जीवदया और अहिंसा को अधिक से अधिक पालता है। वह प्रत्येक जीव की आत्मा को अपनी आत्मा जैसा जान करुणा करता है। उनका दुख दर्द समझकर दयावान बन जाता है। इससे संसार में प्रेम, वात्सल्य और सहिष्णुता बढ़ती है - साथ ही सहनशीलता भी।
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