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श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन था।
सम्यक्व के पच्चीस दोष :
सम्यक्त्व के पच्चीस दोष माने गये हैं, जो सम्यक्त्व की प्राप्ति के मार्ग में अवरोध उत्पन्न करते हैं। उनसे साधक को रहित होने का आदेश है। वे दोष इस प्रकार हैं - तीन मूढ़ताएँ, आठ मद, छह अनायतन और आठ शंका आदि। तीन मूढ़ताएँ :
1. देव मूढ़ता, 2. गुरु मूढ़ता, 3. लोक मूढ़ता आठ पद :1. ज्ञान, 2. अधिकार, 3. कुल, 4. जाति, 5. बल, 6. ऐश्वर्य, 7. तप, 8. रूप। छह अनायतन :1.कुदेव, 2.कुदेव मन्दिर, 3.कुशास्त्र, 4.कुशास्त्र के धारक, 5.कुतप एवं 6.कुतप के धारक आठ शंका आदि:- (सम्यक्त्व के आठ अंगों से विपरीत)
1.शंका, 2.कांक्षा, 3.विचिकित्सा, 4.अन्य दृष्टि प्रशंसा, 5.निन्दा, 6.अस्थितिकरण, 7.अवात्सल्य और 8.अप्रभावना। इन्हीं दोषों में सम्यक्त्व के पाँच अति चारों का अन्तर्भाव है। 2) ज्ञानाचार:
काल, विनय, उपधान, बहुमान, अनिद्रव, अर्थ, व्यंजन और तदुभय सम्पन्न ज्ञानाचार है और उसी निज स्वरूप में संशय, विमोह, विभ्रम रहित जो स्वसंवेदन ज्ञान रूप ग्राहक बुद्धि ही सम्यग्ज्ञान है। सम्यग्दर्शन पूर्वक ही सम्यग्ज्ञान होता है। सम्यग्दर्शन के लिए जिन तत्वों पर श्रद्धान अथवा विश्वास अपेक्षित है, उनको विधिवत् जानने का प्रयत्न करना ही सम्यग्ज्ञान का लक्ष्य है। अर्थात् अनेक धर्मयुक्त स्व तथा पर-पदार्थों को यथावत् जानना ही सम्यग्ज्ञान है।
वस्तुतः जीव मिथ्या-ज्ञान के कारण चेतन-अचेतन वस्तुओं को एक रूप समझता है, परन्तु चेतन स्वभावी जीव या आत्मा अचेतन या जड़ पदार्थों के साथ एकीभूत कैसे हो सकता है ?
सम्यग्दर्शन के बिना सम्यग्ज्ञान का होना असंभव है। सम्यग्ज्ञान के तीन दोष - संशय, विपर्यय तथा अन यवसाय – स्व तथा पर पदार्थों के अन्तर को जानने के मार्ग में बाधक हैं। अतः इन तीनों दोषों को दूर करके आत्मस्वरूप को जानना चाहिए। आत्मस्वरूप का जानना ही निश्चय दृष्टि से सम्यग्ज्ञान है। 3) चारित्राचार :
प्राणियों की हिंसा, मिथ्यावादन, चोर कर्म, मैथुन सेवान, परिग्रह, इनका त्याग करना ही अहिंसादि पांच प्रकार चारित्राचार है। सम्यग्दर्शन तथा सम्यग्ज्ञान होने के बाद चारित्र सम्यक्चारित्र हो जाता है क्योंकि दृष्टि में परिवर्तन आ जाता है। दृष्टि परिशुद्ध यथार्थ बन जाती है। राग-द्वेषादि कषाय परिणामों के परिमार्जन के लिए अहिंसा, सत्यादि व्रतों का पालन करने के लिए सम्यक् चारित्र का विधान है। ज्ञान सहित चारित्र ही निर्जरा तथा मोक्ष का हेतु है। दूसरे शब्दों में अज्ञानपूर्वक चारित्र का ग्रहण सम्यक नहीं होता, इसलिए चारित्र का आराधन सम्यग्ज्ञानपूर्वक ही सम्यक् कहा गया है।
श्रमण एवं गृहस्थ की दृष्टि से चारित्र दो प्रकार का है। 1.सफल चारित्र, 2.विकल चारित्र। बाह्य तथा आभ्यान्तर दोनों प्रकार के परिग्रहों के त्यागपूर्वक श्रमण द्वारा गृहीत चारित्र सर्वसंयमी अर्थात सकल चारित्र है। गृहस्थों एवं श्रावकों द्वारा गृहीत चारित्र देश संयम अर्थात् विकल चारित्र है। उक्त दोनों प्रकार के चारित्र को क्रमशः सर्वदेश तथा एकदेश कहा गया है। चारित्र के पांच भेदों का भी वर्णन किया गया है।
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