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श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ
कर सकता। व्यक्ति तभी सौम्य, विवेकशील, नैतिक, शुद्ध, प्रगतिशील और समाज तथा राष्ट्रहितैषी हो सकता है, जब वह जीवन के पांच अनुचित कर्म हिंसा, चोरी, झूठ, परिग्रह तथा दुराचारों को त्याग दे। वर्तमान संर्दभ में उपरोक्त पंचव्रतों की उपयोगिता कई गुणा अधिक बढ़ गई हैं।
अहिंसा को जैन तीर्थकरों ने परम ब्रह्म का स्थान दिया हैं। अहिंसा को केन्द्र बिन्दु और बाकी शेष अणुव्रतों को इसका सहायक आधार माना गया हैं। जैन मत के अनुसार प्रमाद के योग से प्राणियों के प्राणों का घात करना हिंसा हैं और उनकी रक्षा करना अहिंसा हैं। महावीर ने अहिंसा के उस स्वरूप की बात कही थी, जो आत्मदर्शी है
और सारी सृष्टि में आत्म तत्व देखती हैं। उनकी अहिंसा मनुष्य के जीवन की एक चेतना हैं। अहिंसा के अन्तर्गत मात्र जीव हिंसा का त्याग ही नहीं आता, बल्कि उनके प्रति प्रेम का भाव भी व्यक्त करना धर्म माना गया हैं। हिंसात्मक कार्यो के विषय में मन में विचार लाना या दूसरों को हिंसात्मक कार्यो के लिए प्रेरित करना भी अहिंसा सिद्धान्त का उल्लंघन हैं। जैन मतानुसार प्रत्येक क्रिया मन, वचन और शरीर से होती है, पर वचन और शरीर से होने वाली क्रिया का मूल भी मन है, अतः मन पर नियंत्रण रखने का प्रयास किया जाना चाहिए। मन की चंचलता से व्यक्ति अपना लक्ष्य भूल जाता है, इस कारण वह आखेट, द्यूत, मद्यपान और मांसाहार का शिकार हो जाता हैं। एक अहिंसा वृत्ति को स्वयं को इन चीजों से दूर रहना चाहिए। इसी प्रकार उदार आचरण के लिए हमारा हृदय हीन कोटि की भावनाओ, जैसे अहंकार, क्रोध, पाखण्ड, लालच, ईर्ष्या, द्वेष वगैरह से मुक्त होना चाहिए।
जैन विचारकों ने अहिंसा की आराधना के लिए सत्य की आराधना को अनिवार्य माना है। उसके माध्यम से व्यक्ति समाज का विश्वास भाजन बनता है और सब के लिए सुरक्षा का वातावरण प्रस्तुत करता है। सत्य का आदर्श सुनृत है, अर्थात वह सत्य जो प्रिय एवं हितकारी हो। लोगों को चाहिए कि वे मात्र मिथ्या वचन का ही परित्याग नहीं करें बल्कि मृदु वचनों का भी प्रयोग करें। चूंकि गृहस्थाश्रम में रहते हुए सत्य महाव्रती होना संभव नहीं है। अतः जहां तक संभव हो सके व्यक्ति को चाहिए कि वह मन, वचन और शरीर से असत्य बोलने और दूसरों को उसके लिए प्रेरित करने से बचे। जैन विचारानुसार अहिंसा और सत्य की रक्षा के लिए अचौर्य व्रत भी अनिवार्य है। उसके अनुसार कोई व्यक्ति तब तक किसी वस्तु को लेने का अधिकारी नहीं है, जब तक वह उसे सौंप न दी जाये। इसी के द्वारा छूटी हुई या भूली हुई वस्तु को ले लेना या दूसरे को सौंप देना नियम विरूद्ध कार्य है। दूसरों को चोरी के लिए उत्प्रेरित करना भी अनुचित और अधार्मिक है। हर व्यक्ति को उदारता और पारस्परिक विश्वास की भावना रखनी चाहिए और इसका विश्वास क्रमशः समाज राष्ट्र एवं अंतराष्ट्रीय स्तर पर किया जाना चाहिए। इन गुणों से युक्त नागरिक सह-अस्तित्व और बहुजन हिताय, बहुजन सुखाय के सिद्धांतों का पालन करते हुए संगठित समाज, एवं राष्ट्र की रचना कर सकता है।
जैन दर्शन के अनुसार बाह्य और आन्तिरक वस्तुओं के प्रति लालसा रखना ही परिग्रह है। यह निर्विवाद है कि जीवन का अधिकार जीवन के साधनों से जुड़ा है, क्योंकि उसके बिना जीवन की सत्ता संभव नहीं। भोजन, वस्त्र और आवास हर व्यक्ति की मौलिक आवश्यकताएँ हैं और अगर कोई व्यक्ति इनका संचय जरूरत से अधिक करता है तो वह दूसरों को इससे वंचित ही करेगा। परिग्रह से कई तरह की लालसाएँ जन्म लेती है। जबकि इसीसे मुक्त रहना नैतिकता एवं सचरित्रता का आधार है। आज की दुनिया में अपरिग्रह का पालन इसलिए भी जरूरी है क्योंकि इसी के द्वारा समाज और देश से असमानता को समाप्त किया जा सकता है। वर्तमान संदर्भ से शोषण, अनैतिक व्यापार, कालाबाजारी, चोरबाजारी, तस्करी, भू-सम्पत्ति पर अनियंत्रित अधिकार तिलक दहेज की सीमाहीन लिप्सा जैसे घृणित प्रचलनों का बाहुल्य परिग्रहवादी दृष्टि की दुष्परिणती है। इसे वैधानिक नियमों द्वारा समाप्त नहीं किया जा सकता, बल्कि मानसिक सन्तुलन बनाये रखने के लिए हमें अपनी इच्छाओं पर स्वेच्छा से नियंत्रण करने का अभ्यास करना होगा। अपरिग्रह के पालन से ही स्वाभाविक रूप से समाज में व्यक्ति-व्यक्ति के बीच तनाव घटेगा। यदि विश्व के लोग संग्रहवृति त्याग दें तो चारों ओर शांति और संतोष का वातावरण कायम हो जायेगा। जिस में एक तरफ जहां निर्बलों को जीने का अधिकार मिलेगा वहीं अविकसित देशों के लिए विकास का मौका भी प्राप्त होगा। अपरिग्रह के द्वारा ही विश्व की वर्तमान सामाजिक एवं आर्थित विषम स्थिति को संतुल्य किया जा सकता है।
हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति
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