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श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ
विश्व की वर्तमान समस्यायें और जैन सिद्धान्त
-डॉ.विनोद कुमार तिवारी छठी शताब्दी ई. पू. के लगभग भारतीय सामाजिक धार्मिक आन्दोलन की प्रारंभिक शुरूआत हुई, जिसमें तत्कालीन समाज एवं धर्म में आई बुराइयों तथा भ्रष्टाचार को समाप्त करने का प्रयत्न किया गया। धार्मिक और नैतिक पृष्ठभूमि में बिहार को यह गौरव प्राप्त हुआ कि इसकी धरती पर अन्य चिन्तकों के साथ - साथ तीर्थकर महावीर जैसे महान समाज सुधारक का प्रादुर्भाव हुआ, जिनके क्रांतिकारी विचारों का प्रभा तत्कालीन युग में बहुत गहराई तक पड़ा और इसका महत्व आज भी हमारे लिए उस समय से कम नहीं है। तीर्थंकर महावीर किसी नये धर्म के प्रवृतक नहीं थे, बल्कि जैनधर्म की श्रृंखला में तेईस तीर्थंकरों के बाद के अन्तिम तीर्थंकर थे, जिन्होने इस धर्म को नया स्वरूप, नई दिशा और नवीन संगठन प्रदान किया। उन्होंने जैनधर्म में अब तक चले आ रहे सिद्धान्तों को स्पष्ट, संशोधित और व्यवस्थित कर इसे एक स्वतंत्र विचारधारा के रूप में लोकप्रिय बनाया। उन्होंने इसमें कई बातों को सम्मिलित करने के साथ-साथ अपने पूर्ववर्ती तीर्थंकरों द्वारा निर्धारित किये गए जीवन के नियम और शर्तो को सामाजिक एवं दार्शनिक आधार प्रदान किये। छठी शताब्दी ई.पू. कालीन सम्पूर्ण समाज में भ्रष्टाचार, हिंसा, अज्ञानता, जातिवाद, शोषण और सामाजिक-धार्मिक विभेद का बोलबाला था। धर्म के नाम पर अनगिनत पशुओं की बलि चढ़ाई जा रही थी। दूसरी तरफ समाज का एक वर्ग विशेष गलत मान्यताओं के आधार पर अछूत करार कर दिया गया था और स्त्रियों को समाज में दासी तथा भोग्या मात्र समझा जाने लगा था। मानवता का तेजी से पतन हो रहा था और कोई भी ऐसी धार्मिक या सामाजिक शक्ति दिखलाई नहीं पड़ रही थी, जो इन्हें रोक पाने में समर्थ हो। सब मिलाजुला कर स्थिति यही थी कि सामाजिक कल्याण और धार्मिक नैतिकता के किसी पहलू की तरफ लोगों का कोई ध्यान नहीं था। इन्ही कठिन परिस्थितियों में तीर्थकर महावीर का आगमन हुआ, जिन्होंने न सिर्फ तत्कालीन चुनौती को स्वीकार किया, बल्कि एक आदर्श समाज के निर्माण के लिए अपना सम्पूर्ण जीवन उत्सर्ग कर दिया। समय और आवश्यकता की मांग को देखते हुए उन्होंने, प्रचलित जैन धार्मिक व्यवस्था में अनेक महत्वपूर्ण सुधार किये। इन सब का प्रभाव यह पड़ा कि जैनधर्म के धार्मिक,नैतिक और दार्शनिक विचार सम्पूर्ण भारत के साथ-साथ विश्व के कई अन्य दूसरे देशों में भी फैले, जो आज भी किसी न किसी रूप में वहाँ देखे या महसूस किये जा सकते हैं।
जैन विचारकों के अनुसार मानव जीवन का अन्तिम लक्ष्य निर्वाण या मोक्ष है और इसकी प्राप्ति अनन्त सुख का द्योतक है। जीव स्वभाव से मुक्त है, पर अनादि अविद्या या वासना के कारण कर्म बंधन में फंस जाता है, लेकिन जैन मत के अनुसार यदि व्यक्ति सम्यक दर्शन, सम्यक ज्ञान, और सम्यक चारित्र रूपी त्रिरत्न का पालन करे, तो वह कर्म के बंधन से आत्मा को मुक्ति दिला सकता हैं। सम्यक् दर्शन की प्राप्ति सम्यक् ज्ञान से ही संभव है और सम्यक् ज्ञान बिना सम्यक चारित्र प्राप्त हो ही नहीं सकता। इस त्रिरत्न की प्राप्ति हो जाने पर मनुष्य आत्मा और कर्म के बंधन से मुक्त हो पूर्णता को प्राप्त कर लेता हैं।
जैन सिद्धान्तों में सम्यक चारित्र की प्राप्ति के लिए लोगों को पांच अनुशासन के पालन की सलाह दी गई है। इसे जैन दर्शन में 'अणुव्रत' माना गया है और इसमें अहिंसा, अमृषा, अस्तेय अपरिग्रह और ब्रह्मचर्य को सम्मिलित किया गया हैं। अहिंसा से तात्पर्य हिंसा से दूर रहने का, अमृषा से असत्य नहीं बोलने का, अस्तेय से चोरी नहीं करने का,अपरिग्रह से संचय नहीं करने का और ब्रह्मचर्य से व्यभिचार से स्वंय को मुक्त रखने का हैं। उपरोक्त व्रतों की अनिवार्यता पर ध्यान देने से यह स्पष्ट होता है कि इनके द्वारा मानव की उन वृत्तियों को नियंत्रित करने का प्रयास किया गया हैं, जिससे समाज में कुप्रवृत्ति और भ्रष्टाचार का जन्म होता हैं। मनुष्य के कर्म उसके स्वार्थ से वशीभूत होकर ही होते हैं। जब तक वह अच्छे-बुरे का मानदण्ड नहीं समझता, अपनी क्रियाओं को नियंत्रित नहीं
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