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श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ
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अपरिग्रह महाव्रत :
परिग्रह से आत्मा अशान्तावस्था की ओर उन्मुख होता है क्योंकि रात दिन उसे बढ़ाने तथा सुरक्षा करने की चिन्ता बनी रहती है। अतः साधु को परिग्रह न करना चाहिए, न करने की प्रेरणा ही देनी चाहिए और न करते हुए का अनुमोदन ही करना चाहिए।
इसकी पांच भावनाएँ निम्न प्रकार है :1. अप्रिय शब्दों का परित्याग कर प्रिय शब्दों का प्रयोग। 2. रूप पर रागद्वेष कदापि नहीं करना चाहिए। 3. रस की ओर आकर्षित कदापि नहीं होना चाहिए।
4. गंध के प्रति रुचि नहीं रखनी चाहिए।
स्पर्श पर रागद्वेष कदापि न करे। बाहा पदार्थों के त्याग से अनासक्ति का विकास होता है।अतः बाहा पदार्थों का त्याग भी परमावश्यक माना गया है।
5.
स्पश पर
गृहस्थों के लिए आचार :
यद्यपि जैन नीति शास्त्र का एक पुरुषार्थ मोक्ष है और कौटुम्बिक जीवन निश्चित ही निम्न कोटि की अवस्था है फिर भी त्याग पूर्ण जीवन की तैयारी के रूप में गृहस्थ (श्रावक) के लिए निम्नांकित अणुव्रतों का विधान है। अणुव्रत का अर्थ है पंच महाव्रतों के सूक्ष्मातिसूक्ष्म अंश।
अणुव्रत प्रत्येक महाव्रत से सम्बन्धित है।
1. अहिंसा से सम्बन्धित अणुव्रत :
निर्दोष घुमक्कड़, पशुओं की हिंसा, आत्महत्या, भ्रूणहत्या, हिंसक संगठन से साहचर्य, कठोरता का व्यवहार, आदि न करना एवं किसी को अस्पृश्य न मानना।
2. सत्य से सम्बन्धित अणुव्रत :
तोलने के झूठे बांटो का प्रयोग, झूठे निर्णय, झूठे मुकदमे या गवाही, ईर्ष्या या स्वार्थ के कारण भेद खोलना, किसी की वस्तु को वापस न करना, जाली काम, आदि न करना।
3. अस्तेय से सम्बन्धित अणुव्रत :
दूसरे की वस्तु को अधिकार में कर लेने की नियत से लेना, चोरी की वस्तु को जानबूझकर खरीदना, कानूनी रूप से अवैध वस्तुओं का धन्धा करना, व्यापार में चालाकी करना, सदस्य के रूप में किसी संगठन की सम्पत्ति या रूपया हड़पना, आदि निषिद्ध कर्म है।
4. ब्रह्मचर्य से सम्बन्धित अणुव्रत :
व्यभिचार, वेश्यागमन, अप्राकृत मैथुन, महीने में कम से कम बीस दिन मैथुन आदि न करना, अठारह वर्ष की आयु तक ब्रह्मचारी रहना, पैंतालीस वर्ष की उम्र के पश्चात् विवाह न करना, आवश्यक है।
5. अपरिग्रह से सम्बन्धित अणुव्रत :प्रत्येक व्यक्ति द्वारा निर्धारित आवश्यक सामग्री से अधिक न रखना घूस और उपहार न लेना, इत्यादि।
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