________________
श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन गंथा
व्रतों का पूर्णतया पालन करता है। श्रावक उन्हें ही आंशिक रूप में पालन करने पर भी उन्हीं की तरह मोक्ष प्राप्त करने का अधिकारी माना गया है। तात्पर्य यह है कि अहिंसादि व्रतों का पूर्णतया पालन करने वाला साधक साधु और श्रमण तथा महाव्रती कहलाता है। आंशिक रूप से पालन करने वाला साधक श्रावक कहलाता है।
जैन दर्शन दूसरे दर्शनों की भांति मनुष्य जीवन को चार आश्रमों में विभक्त करने के पक्ष में नहीं है और न वह जीवन की तुरीयावस्था में ही सन्यास ग्रहण की बात मानता है। वह जीवन को केवल दो भागों में ही विभाजित करता है। वे हैं - श्रावक (गृहस्थ) और श्रमण (साधु) इन दोनों में प्रथम को तो गृहस्थ जीवन व्यतीत करते हुए ही जैन दर्शन में सम्मत सामान्य नियमों का पालन करके मोक्ष प्राप्त करने का अधिकारी माना गया है। और साधु जीवन में गृह परिवार, धन सम्पति आदि बाह्य पदार्थों का त्याग कर कठोर साधना करके मोक्ष प्राप्त कर सकता है। साधु को श्रमण भी कहते हैं। श्रमण का तात्पर्य है जो जीवन में आन्तरिक विकारों पर विजय प्राप्त कर मानापमान निन्दा, स्तुति सबको समान समझे। यह शब्द श्रम (युय) धातु से बना है जिससे परिश्रमी होना प्रकट होता है, इसका अर्थ सन्यासी, भक्त तथा साधु होता है। अभिप्राय यह है कि जो परिश्रमपूर्वक साधु जीवन व्यतीत करे वह श्रमण है। इस प्रकार जैन दर्शन में साधु के लिए गृहस्थ की अपेक्षा विशेष कठोर साधना पद्धति कही गयी है। साधु के नियमों को महाव्रत कहते है। यहां उन्हीं पंचमहाव्रतों का विवेचन किया जा रहा है। अहिंसा महाव्रत :
आजीवन त्रस और स्थावर सभी जीवों की मन, वचन, कार्य से हिंसा न करना, दूसरों की हिंसा कराना और हिंसा करने वाले का अनुमोदन न करना, अहिंसा महाव्रत है। अहिंसा की पांच भावनाएँ (समिति) होती है।
प्रथम भावना :
निर्ग्रन्थ स्वयं न तो हनन करे, न करावे और न करते हुए का अनुमोदन, मन, कर्म तथा वचन से करे यह भावना ईर्या समिति से सम्बद्ध है।
द्वितीय भावना :
मन से पाप हटाने वाले को निग्रंथ कहते हैं। पापकारी, सावद्यकारी, क्रिया मुक्त, आश्रव करने वाला, कलहकारी, द्वेषकारी, परितापकारी, प्राणों का अतिपात करने वाला और जीवों का उपघातक है।
तृतीय भावना :
जो वचन पापमय, सावद्य और सक्रिय यावत् भूतों (जीवों) का उपघातक विनाशक हो साधु को उस वचन का उच्चारण न करना चाहिए। इस प्रकार साधु को भाषा की शुद्धता तथा निर्दोषता का पालन परमावश्यक बताया गया है।
चतुर्थ भावना :साधु, आदान, भाण्डमात्र निक्षेपणा समिति से रहित होना चाहिए। पंचम भावना :
जो विवेक पूर्वक देखकर आहारपान करता है, वह निर्ग्रन्थ है, जो बिना देखे आहार करता है उसमें जीव हिंसा होती है। इस प्रकार निर्ग्रथ को सभी प्रकार की हिंसाओं से दूर रहना चाहिए।
सत्य महाव्रत :
मन, वचन, काय से सत्य का प्रयोग करना तथा सत्य का आचरण करना और सूक्षम असत्य तक का भी प्रयोग न करना, सत्य महाव्रत है। तात्पर्य यह है कि साधु क्रोध, लोभ, भय से और हास्य से कदापि झूठ नहीं बोले, न ही अन्य व्यक्ति को असत्य भाषण की प्रेरणा दे और न अनुमोदन ही करे। इस प्रकार तीन करण, तीन योग से मृषावाद का त्याग करने वाला ही सच्चा साधु है।
हेमेन्ट ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति 92 हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्ट ज्योति