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श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ
इस प्रकार सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान तथा सम्यक्चारित्र आत्मविकास की क्रमिक सीढ़ियां हैं, मोक्ष मार्ग के साधन हैं, क्योंकि इनके द्वारा क्रम-क्रम से आत्म विकास होता है, कषाय एवं कर्मक्षीण होते जाते हैं और स्वानुभूति की परिधि का विस्तार होता जाता है तथा एक ऐसी अवस्था आती है जब साधक मोक्ष का अधिकारी बन जाता है।
4. तपाचार:
तपाचार के बाहा तथा आभ्यान्तर दो भेद हैं। बाहृा तप के अनशन, अपमोदार्य, रसपरित्याग, वृत्ति परिसंख्यान, कायशोषण तथा विविक्त शय्यासन - ये छ: भेद माने गये हैं। प्रायश्चित, विनय, ध्यान, वैयावृत्य, स्वाध्याय तथा व्युत्सर्ग ये छ: अन्तरंग तपाचार हैं।
उसी परमानन्द स्वरूप में परद्रव्य की इच्छा का निरोध कर सहज आनन्द रूप तप चरण स्वरूप परिणमन तपश्चरणाचार है। अनशनादि बाहा तपाचार हैं। समस्त परद्रव्य की इच्छा के रूप में से तथा अनशन आदि बारह तप रूप बहिरंग सहकारिकारण से जो निज स्वरूप में प्रतपन अर्थात् विजयन वह निश्चय तपश्चरण है। उसमें जो आचरण अर्थात् परिणमन है वह निश्चय तपश्चरणाचार है |
5. वीर्याचार :
नहीं छिपाया है आहार आदि से उत्पन्न बल तथा भक्ति जिसने ऐसा साधु यशोक्त चारित्रय में तीन प्रकार अनुमतिरहित सत्रह प्रकार के संयम विधान करने के लिए आत्मा को मुक्त करता हैं वह वीर्याचार कहलाता है। समस्त इतर आचार में प्रवृत्ति कराने वाली स्वशक्ति के अगोपन स्वरूप वीर्याचार है। उसी शुद्धात्म स्वरूप में अपनी शक्ति को प्रकट कर आचरण या परिणमन करना निश्चय वीर्याचार है। अपनी शक्ति प्रकट कर मुनिव्रत का यह व्यवहार वीर्याचार है। इस चतुर्विध निश्चय आचार की रक्षा के लिये अपनी शक्ति का गोपन करना निश्चय वीर्याचार है।
उपर्युक्त विवेचन के अनुसार चारित्रय का शाब्दिक अर्थ आचरण है। मनुष्य अपने दैनिक जीवन में जो कुछ सोचता है या बोलता है या करता है, वह सब उसका आचरण कहलाता है।
चारित्र के दो रूप हैं - एक प्रवृत्ति मूलक और दूसरा निवृत्तिमूलक। इन दानों चारित्रों का प्राण अहिंसा है और उसके रक्षक सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य तथा अपरिग्रह है।
यहां इन्हीं जैन दर्शन मान्य आचार के व्रतों का परिचय दिया जा रहा है। जैन दर्शन के तीर्थंकर पार्श्वनाथ ने अपने शिष्य समुदाय को निम्नलिखित चार महाव्रतों के पालन करने का उपदेश दिया था -
1.अहिंसा, 2.सत्य, 3.अस्तेय, 4. अपरिग्रह।
परन्तु चौबीसवें तीर्थंकर महावीर स्वामी ने इन महाव्रतों की सूची पांचवां ब्रह्मचर्य और जोड़ दिया। जैन धर्म में इन्हें ही 'पंचमहाव्रत' कहा जाता है।
जैन दर्शन में मोक्ष का एकमात्र साधन धर्म माना गया है। वह धर्म दो प्रकार का है-आगार धर्म तथा अनागार धर्म। गृहस्थ धर्म का पालन करते हुए पारिवारिक तथा सामाजिक उत्तरदायित्वों के निर्वाह के साथ मुक्ति मार्ग की साधना करना आगार धर्म है जिसे जैनदर्शन ग्रन्थों में गृहस्थ धर्म अथवा श्रावक धर्म भी कहा गया है। 'श्रावक' शब्द श्र धातु से ण्वुल प्रत्यय होने पर बना है जिसका तात्पर्य है श्रोता अथवा शिष्य। जैन दर्शन के अनुसार गृहस्थ धर्म को श्रावक कहा गया है। जो साधक निर्वाण प्राप्त करने के लिए गृहत्याग कर साधु जीवन व्यतीत करना स्वीकार करता है, उनका आचार अनगार धर्म कहा गया है। जिसे साधु अथवा श्रमणाचार भी कहते हैं।
श्रावक और साधु निर्वाण प्राप्त करने के लिए जिन व्रतों का पालन करते हैं, यद्यपि वे मूलतः एक ही हैं परन्तु दोनों की परिस्थितियों में भिन्नता होने के कारण उनके व्रत-पालन की पद्धति में भी भिन्नता पाई जाती है। जगत् सम्बन्धी समस्त दायित्वों के प्रति उदासीन, संयम तथा त्याग को ही जीवन का मुख्य ध्येय मानने वाला साधु जिन
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