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श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ
ज्ञान की आराधना कीजिये -
महाराज भर्तृहरि का एक प्रसिद्ध श्लोक है :
यदा किंचिज्ञोऽहं द्विपइव मदान्धः समभवं तदा सर्वज्ञोऽस्मीत्यभवदवलिप्तं मम मनः । यदा किंचित्किंचिद् बुधजन सकाशादवगतं, तदा मूर्खोऽस्मीति ज्वर इब मदो मे व्यपगतः ।।
जब मैं थोड़ा बहुत जानता था, तब हाथी की तरह मदांध था, अपने आप को सर्वज्ञ मानकर इतराता था। फिर जब विद्वानों के सत्संग से मुझे कुछ कुछ जानने को मिला तब पता चला कि मैं तो निरा मूर्ख हूँ और मेरा सारा घमंड बुखार की तरह उतर गया।
भर्तृहरि ने ही सज्जनों के स्वभाव का वर्णन करते हुए कहा है
"नम्रत्वेनोन्नमन्त” अर्थात सत्पुरुष नम्रता के द्वारा ऊपर उठते हैं नम्रता और अकड़ अर्थात अहंकार दोनों स्थितियों में मनुष्य के बौद्धिक स्तर अथवा उसके ज्ञान का स्तर मुख्य भूमिका निभाता है। अल्पज्ञ साधारण ज्ञान प्राप्त व्यक्ति ही ज्ञानी होने का दंभ रख सकता है। दूसरों को अपनी विद्वता की चुनौती दे सकता है। अपने आप को सर्वज्ञमान समझ सकता है। किंतु अपने स्वाध्याय अथवा गुरुजनों की कृपा से जब मनुष्य बुद्धि में ज्ञान का स्तर ऊपर उठता है तब उसे वास्तविकता का पता चलता है आकाश की तरह विस्तृत ज्ञान के क्षेत्र की जब तनिक सी झलक दिखाई देती है, तब अपनी अल्पज्ञता का अनुभव होने लगता है। इसी तरह के अनुभव के आधार पर ही शायद जिगर मुरादाबादी ने ये पंक्तियां कही होंगी।
जब देख न सकते थे, तो दरिया भी था कतरा । जब आँख खुली कतरा भी दरिया नजर आया ।।
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श्री किशोरचंद्र एम. वर्धन
जब वास्तविक ज्ञान नहीं था तो समुद्र भी बूंद जैसा महसूस होता था किन्तु जब ज्ञान की दृष्टि मिली तो एक बूंद में समुद्र नजर आने लगा। अर्थात अल्पज्ञान, अज्ञान की अवस्था में व्यापक ज्ञान का क्षेत्र भी सीमित सा साधारण सा जान पड़ता था किन्तु जब ज्ञान आराधना के लिए आगे बढ़े तो छोटी से छोटी बात भी अपने समग्र भाव में अथाह जान पड़ने लगी।
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निश्चित ही मानव बुद्धि की सीमा अत्यन्त सीमित है। जब की ज्ञान अनंत है, अथाह है। जिनने भी ज्ञान साधना के क्षेत्र में पग रखा वह उसमें गहरे डूबते चले गये और अपनी खोज से मानवता को कुछ अमूल्य रत्न दे गये। विवेकशील व्यक्ति ज्ञानाराधना के क्षेत्र में अपने ज्ञानी होने के दंभ से अर्थात तथा कथित विद्वता के बुखार से बचकर ही आगे प्रगति करते है। अधिकांश तो अधजल गगरी छलकत जाय वाली कहावत के अनुसार ज्ञान का दंभ ओढे अपनी विद्वता का नाटकीय प्रदर्शन करते देखे जा सकते है। अल्प ज्ञान जन्य विद्वता का दंभ सारे संसार को अपने माथे पर ढ़ोता नजर आता है किन्तु गहरे पैठा हुआ ज्ञानी विशाल ब्रह्मांड में अपने आप को सही परिप्रेक्ष में देखता है। नम्रता, मितभाषण, स्वाध्याय, गुरुजनों की सेवा, सदाशयता, आत्मचिन्तन मनन आदि ऐसे व्यक्ति की प्रकट पहचान है। इसके विपरीत अल्पज्ञानी ज्ञान के दंभ में डूबा खंडन-मंडन की ऊहापोह में भटका, अच्छे बुरे के आग्रह में बद्ध, संसार को सुधारने का, दूसरों को ज्ञान देने का ढींढोरा पीटता नजर आयेगा। यह भी निश्चित है कि ज्ञान के क्षेत्र में अज्ञानी उतनी गड़बड़ नहीं करता जितनी अल्पज्ञानी करता है। समस्त मत मतांतर वाद, पंथ, या इनके नाम पर उत्पन्न वैर विरोध अल्पज्ञानियों की देन है।
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