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श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन था।
का साथ मिला जिसके आलोक में उसने तमस के सारे बंधनों को प्रज्वलित कर लिया। उसने अपने ग्रन्थियों का भेदन कर लिया। वह सिद्ध क्षेत्र की दिशा में प्रयाण कर गया जहां से पुनः इस मृत्यलोक में वापस आने की सारी संभावनाएं समाप्त हो जाती है। सहयात्री की अवधारणा भ. महावीर की देशना का एक महत्वपूर्ण अवदान है, जो मनुष्य के समक्ष आध्यात्मिक उन्नति के पथ में आने वाली बाधाओं एवं उनके निराकरण का मार्ग प्रस्तुत करती है।
सहिष्णुता:
सहिष्णुता मनुष्य का एक विशिष्ट गुण है जो उसकी विवेक शक्ति से युक्त होती है। यह मनुष्य के मन में ऐसी भावनाओं को जन्म देता है जिन पर आरूढ़ होकर व्यक्ति सभी प्रकार के द्वन्द्वों से मुक्त होने की क्षमता प्राप्त कर लेता है। इन्द्रिय संयम की महत्ता को जानकर इसके लिए अनिवार्य माना जाता है और इसलिए व्यक्ति अपने को इन्द्रिय विषय वासनाओं से मुक्त रखने का प्रयत्न करता है। वह जितेन्द्रिय बनकर निर्ममत्व भाव से जीवन जीता है। विभिन्न प्रकार की संवेदनाएँ उसे विचलित नहीं कर पाती है। सभी अवस्थाओं को सहन करने में उसे आनन्द का अनुभव होता है। वह पर कल्याण के लिए सदैव तत्पर रहता है। इसके लिए उसके मन में किसी प्रकार का प्रमाद या लोभ नहीं रहता है। विश्व का कल्याण करना उसका परम लक्ष्य रहता है। इस लक्ष्य की प्राप्ति के लिए वह सभी कुछ सहन करने के लिए तत्पर रहता है और यही सहिष्णुता है। क्योंकि सहिष्णुता सहन करने का ही नाम है।
भगवान महावीर ने अपनी देशना में यह स्पष्ट किया है कि जागतिक कल्याण सहिष्णुता के बिना संभव नहीं हो सकता। यह एक अनिवार्य सिद्धांत है और मानवता की रक्षा के लिए आवश्यक भी है। यह मनुष्य को दूसरों के कष्टों को सहने की शक्ति प्रदान करता है। परहित के लिए यह अपेक्षित है। जैन परम्परा में सहिष्णुता की अवधारणा को स्पष्ट करने के लिए अनेका उदाहरण प्रस्तुत किये गये है। स्वयं श्रमण महावीर का जीवन सहिष्णुता का जीवंत उदाहरण है। उन्होंने अपनी तपश्चर्या और संयम साधना में इसे अपनाया है। लाड देश में उपसर्गों का सहन इनकी अनुपम सहिष्णु प्रवृति का परिचय देता है। कानों में कील जाने पर किसी तरह की प्रतिक्रिया व्यक्त नहीं करना सचमुच सहिष्णुता की पराकाष्ठा है। महावीर ने अपने जीवन में सहिष्णुता को अपनाया और इसके महत्व को समझा। इसे मानव कल्याण का महामंत्र माना। इसीलिए उन्होंने इसे अपनी देशना में स्थान दिया और पूरे विश्व की भलाई का मार्ग प्रशस्त किया। स्वतंत्रता :
इस संसार में सभी को अपनी स्वतंत्रता अच्छी लगती है। कोई भी परतंत्र नहीं रहना चाहता। लेकिन प्रत्येक जीव दूसरों को परतंत्र बनाने का प्रयत्न करता रहता है। उसकी यह प्रवृत्ति विविध प्रकार के संघर्षों को उत्पन्न करती है। उसकी इस प्रवृत्ति का कारण उसके नैसर्गिक स्परूप का कर्मों के द्वारा आच्छादित होना है। संसारी प्राणी चाहे अपने आपको स्वतंत्र रखने का लाख प्रयत्न कर लें, परन्तु वह तो कर्माधीन है। कर्मों के पराधीन होकर वह निरंतर दुखों से पीड़ित होता रहता है। भ. महावीर जीवों को कर्मों की इस परवशता से मुक्ति दिलाना चाहते थे, संसार की भयावहता से बचाना चाहते थे। अतः उन्होंने अपनी देशना में स्वतंत्रता को समाहित किया और मनुष्य को परतंत्रता की बेड़ी से मुक्त होने का मार्ग प्रदान किया। स्वतंत्रता के पथ में सबसे बड़ी बाधा मनुष्य का अहंकार और ममकार है। जब तक इनसे मुक्त नहीं होगा तब तक परतंत्रता के पाश को तोड़ नहीं पाएगा। इसकी प्राप्ति के लिए उसे अपना सर्वस्व त्याग करना पड़ेगा। सर्वस्व त्याग के लिए मनुष्य को असीम संकल्प एवं धैर्य का आश्रय लेना पड़ेगा, जो उसके पास है और ममकार तथा अहंकार रूपी परिबंधनों से परिवेष्टित है।
भ. महावीर ने परतंत्रता के दुख को भोगा साथ ही साथ स्वतंत्रता के सुख का रसास्वादन भी किया। इस स्वतंत्रता को पाने के लिए उन्होंने अपना सर्वस्व त्याग किया। उन्होंने न केवल अपने घर, परिवार, बंधु-बांधव को ही छोड़ा, बल्कि अपने धर्म सम्प्रदाय का भी विसर्जन किया। भ.पार्श्व का धर्म सम्प्रदाय उन्हें परम्परा से प्राप्त था, फिर भी वे उसमें दीक्षित नहीं हुए। उन्होंने दीक्षा ग्रहण की लेकिन वह भी आलौकिक था। दीक्षित होते ही उन्होंने
हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति
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