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श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ
महावीर की देशना और निहितार्थ
-डॉ सुनीता कुमारी श्रमण भ.महावीर जैन परम्परा में मान्य 24 तीर्थंकरों में सबसे अंतिम तीर्थंकर थे। इनमें तीर्थंकरों में पाई जाने वाली सारी विलक्षणताऐं विद्यमान थी। परन्तु इनके व्यक्तित्व में कुछ ऐसी विषेशताऐं थीं जो इन्हें अन्य तीर्थंकरों से अलग कर देती है। ये बहुविध प्रतिभा के धनी होने के साथ साथ मौलिक चिन्तक थे। इनका चिन्तन सरल, सुबोधगम्य होने के साथ साथ गंभीर एवं दार्शनिक समस्याओं से भी परिपूर्ण होता था। उनकी दृष्टि में सभी जीव समान होते है, इनमें किसी प्रकार का अंतर नहीं होता है। दूसरे ही क्षण वे विभिन्न जीवों के बारे में विचार करने लगते हैं और इनकी भिन्नता के कारणों को भी स्पष्ट करते है। कभी वे व्यक्तिगत साधना की महानता का बखान करते हैं तो उसी पल परस्परता की भी व्याख्या करने लगते है। एक ओर वे मनुष्य को सामाजिक दायित्व के निर्वहण का संदेश देते हैं तो दूसरी ओर सन्यस्त जीवन स्वीकार करने की बात करते हैं। इसी तरह के बहुविध परस्पर विरोधी चिन्तन उनके विचारों में मिल जाते है। इन्हें वे प्रायः अपनी देशनाओं में व्यक्त करते रहते थे तथा उनका समाधान भी प्रस्तुत करते थे। इनके आधार पर वे मनुष्यों को सम्यक् सत्य का दिग्दर्शन कराना चाहते थे।
समता : जीवन मृत्यु शत्रु-मित्र, जय-पराजय, प्रशंसा-निंदा, मान-अपमान, सुख-दुःख ऐसे असंख्य युग्म इस संसार में है। ये व्यक्ति के मन को विभिन्न प्रकार से आघात पहुंचाते है। उनके कारण उसके मन का संतुलन बिगड़ जाता है। वह विषम हो जाता है और द्वन्द्व का जीवन जीने को विवश हो जाता है । द्वन्द्व के इस आघात से बचने के लिए महावीर ने समता की साधना का मार्ग का अन्वेषण किया। उन्होंने समता को प्राणी का स्वभाव अथवा धर्म कहा'। इसके आधार पर उन्होंने मनुष्य को सभी परिस्थितियों में सम बने रहने की प्रेरणा का मार्ग प्रदान किया। समता की प्रेरणा मनुष्य के मन में उत्पन्न होने वाली विकृतियों का शमन कर देती है। वह शत्रु-मित्र, मणि-पाषाण, स्वर्ण-मृतिका जैसे भिन्न और प्रकृति वाले तत्वों के प्रति समान भाव रखने लगता है, इनके कारण उसके मनमें किसी प्रकार का राग-द्वेष नहीं उत्पन्न होता है। उसके मन में सभी जीवों के प्रति मैत्री, करुणा आदि मानवीय गुणों का विकास होने लगता है। वह सभी जीवों को अपने समान समझता है। किसी भी प्राणी का अहित उसे स्वीकार नहीं होता।
समता जीव की प्रकृति है जबकि विषमता विकृति है। विकृति कभी भी उपादेय नहीं हो सकती है। यही कारण है कि महावीर ने सर्वदा मनुष्यों को विकृति से बचने का संदेश दिया। वे व्यक्ति को शत्रुता के स्थान पर मित्रता, घृणा की जगह प्रेम आसक्ति की अपेक्षा अनासक्ति, अपनाने को कहा करते थे। क्योंकि विश्व में व्याप्त विषमता को ऐसे ही सद्भाव पूर्ण व्यवहारों एवं विचारों से मिटाया जा सकता है। मनुष्य की यही वृत्ति समता को स्थापित करने की क्षमता रखती है। क्योंकि यह मनुष्य के मन में स्व एवं पर में रागद्वेष से रहित होने का भाव, मान अपमान दोनों ही अवस्था में तटस्थ, त्रस स्थावर सभी प्राणियों को समान समझना, रागद्वेश आदि के कारण आत्मा में विकार उत्पन्न न होने पाये आदि सौम्य एवं विधेयात्मक भाव उत्पन्न करता है। मनुष्य के ये शांत एवं सौम्य भाव अत्यन्त शक्तिशाली होते हैं और विश्व की समस्त विकृतियों को नष्ट करने की क्षमता से युक्त होते है। इनके कारण समस्त विश्व का कल्याण होता है। महावीर की देशना में सम्मिलित समता का यही प्रयोजन था, यही उसका निहितार्थ था। सह-अस्तित्व:
अस्तित्व-रक्षा प्राणी जगत् की प्रकृति है। इसके लिये सभी प्राणी निरन्तर प्रयत्नशील रहते हैं। अस्तित्व विविध रूपों में विभाजित रहता है। कभी जीवन अथवा प्राण रक्षा का अस्तित्व उठ खडा होता है तो कभी मान अपमान अहं आदि रूपों में अस्तित्व रक्षा की समस्या उत्पन्न हो जाती है। कभी व्यक्तित्व निर्माण के रूप में अस्तित्व का प्रश्न आ जाता है, कभी स्वयं अस्तित्व के अस्तित्व बोध पर ही प्रश्न चिन्ह लगने की समस्या उत्पन्न हो जाती है।
हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति
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