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श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ
निश्चयनय की दृष्टि से लगाने की चर्चा आदि बिंदु आते है। इसके अतिरिक्त आचार्य के क्षेत्र में भी कषाय, हिंसा, पापस्थान एवं मिथ्या-दर्शन से विरमण, अचित्त आहार, व्रत-उपवास आदि के द्वारा इन्द्रिय – मन नियंत्रण, परिषह सहन, सामायिक, संयम, संवर, तप एवं निर्जरा का अभ्यास, पूर्वकृत कर्मों एवं आसक्ति के अल्पीकरण की प्रक्रिया का पालन आदि नैतिक जीवन के उन्नयन के उपदेश प्रमुख है। निश्चय व्यवहार सिद्धांत के समान वाहय एवं अंतरंग आचार का उपदेश भी दिया गया है। ये सभी परम्परागत उपदेश महावीर ने भी अपनाये है। दोनों ही तीर्थकर महिलाओं के प्रति उदार थे। दोनों ही मुक्तिलक्षी थे।
फिर भी ऐसा प्रतीत होता है कि महावीर के उपदेशों की तुलना में भ. पार्श्व के युग में निम्न सैद्धांतिक मान्यतायें स्पष्ट रूप से नहीं मिलती। (1) कालद्रव्य, (2) सप्त-तत्व/नव पदार्थ (इनके परोक्ष संकेत हो सकते हैं) (3) दैनिक प्रतिक्रमण की अनिवार्यता (4) पंचयाम धर्म (ब्रह्मचर्य यम) और छेदोपस्थापना चारित्र (5) अष्टप्रवचन माता का महत्व (समिति और गुप्ति) (6) विभज्यवाद एवं अनेकांतवाद का वर्तमान रूप (7) अचेल मुक्ति के ऐकांतिक मान्यता। इन तत्वों का विकास भ. महावीर के समय में हुआ लगता है। इसीलिये महावीर संघ में दीक्षित होने वाले पार्खापत्य पंचयाम सप्रतिक्रमण दीक्षा लेते थे। इसके साथ ही, पार्श्व के युग में (1) सचेल-अचेल मुक्तिवाद (2) आत्मवाद और अभेदवाद (3) सुविधाभोगी साधुत्व एवं स्थविरवाद तथा (4) चातुर्यामवाद से संबंधित उपदेशों की प्रमुखता पाई जाती है। प्राचीन ग्रंथों में स्त्री मुक्तिवाद' एवं 'केवली कवलाहारवाद' की चर्चा नहीं है इनके चातुर्याम - पंचयाम, सचेल-अचेल, मुक्तिवाद तथा सामायिक चारित्र आदि अनेक प्रकरणों में व्यवहार-निश्चय दृष्टि का भी आभास होता है। या कुंद-कुंद की वरीयता प्राप्त निश्चय दृष्टि का आधार ये ही उल्लेख है ? केशी को गौतम की यह बात अच्छी लगी कि तत्व एवं चरित्र की परीक्षा प्रज्ञा, बुद्धि एवं विज्ञान से करनी चाहिए। इस वैज्ञानिकता की दृष्टि ने ही महावीर को पार्श्व के चिंतन को विकसित एवं अभिवर्द्धित करने की प्रेरणा दी । फिर भी उपरोक्त आचारों के कारण पार्श्व संघ में विकृति आयी होगी जिसे महावीर के युग में, पार्श्वस्थ शब्द को शिथिलाचार का प्रतीक माना जाने लगा। संभवतः यह मान्यता पार्श्व को हीन दिखाने की एक कूटनीति का अंग रही हो। यह माना जाता है कि जहां छेदोपस्थापना चारित्र कालद्रव्यवाद, विभज्यवाद आदि के उपदेश महावीर की उदारता प्रदर्शित करते है, वहीं पंचयाम एवं अचेल मुक्तिवाद, दैनिक प्रतिक्रमण, समिति - गुप्तिपालन पर बल आदि के प्रचण्ड निवृत्तिमार्गी उपदेश उनकी व्यक्तिगत जीवन में अनुशासन की कठोरता के प्रतीक माने जाते है। इस कठोरता को अनेक पूर्वी और पाश्चात्य विचारकों ने जैनतंत्र के सार्वत्रिक न हो पाने का एक प्रमुख कारण माना है। महावीर के युग की तीर्थंकर चौबीसी
की मान्यता तथा पूवों के साथ अंगोपांगों का शास्त्रीय विस्तार भी इस प्रक्रिया में बाधक रहा है। अनेकांतवादी मान्यता में जैन तंत्र को सर्वोत्तम सिद्ध कैसे किया जा सकता है ? इन कारणों से ऐसा लगता है कि पार्श्व के सिद्धांत संभवतः जैन तंत्र को अधिक सर्वात्रिक बना सकता है। यही कारण है कि अब कुछ विद्वान निग्रन्थ धर्म पार्श्व धर्म की चर्चा करने लगे हैं। पर इससे महावीर का महत्व कम नहीं होगा क्योंकि उन्हें पाश्चात्यों ने भी विश्व के एक सौ महान पुरुषों में माना है। बस हमें केशी गौतम संवाद के दो वाक्य याद रखने चाहिए।
1. पण्णा सम्मिक्खये धम्म 2. विण्णाणेण धम्मसाहणमिच्छियं
हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्द ज्योति
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