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श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ
जिस भाव से देखो, वैसा फल :
मैं पत्थर की मूर्ति की पूजा करता हूँ, ऐसा समझने वाले को पूजा का कुछ भी फल नहीं मिलता है। परन्तु उसमें देवत्व मानकर भक्ति पूर्वक पूजा करता है तो पूजा का उसे फल अवश्य मिलता है। स्वयं भगवान तरण तारण होते हुए •भी अगर कोई उनकी अशातना करता है तो उसका फल बुरा मिलता है, उसी प्रकार मूर्ति भी तारक है, उसकी अशातना करने वाले को उसका दुष्परिणाम मिलता है।
जड़ होते
हुए भी चिंतामणि रत्न आदि पूजनीय है।
चिंतामणि रत्न आदि अजीव और जड़ होते हुए भी पूजनीय है और उनकी पूजा करने वालों की इच्छा पूर्ण होती है। जैसे ये अजीव वस्तुएँ स्वयं के स्वभाव से पूजन करने वाले का हित करती है, उसी प्रकार श्री जिन प्रतिमा भी पूजन करने वालों को स्वभाव से ही शुभ परिणति के साथ शुभ फल देती है।
जो वस्तु जिस प्रकार का फल देती है, वैसी उपमा उसे दी जा सकती है।
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पुस्तक अचेतन होते हुए भी उसे ज्ञान या विद्या की उपमा दी जाती है उसी प्रकार यद्यपि सम्यग्ज्ञान व धर्म आत्मा का विषय होने पर भी, उन्हें जड कल्पवृक्ष और चिंतामणि रत्न की उपमा दी जाती है। इसी प्रकार परमात्मा की मूर्ति से परमात्मा का ज्ञान होता है, तो उस मूर्ति को परमात्मा कहा जा सकता है।
कर्मक्षय के दो अमोघ साधन :
इस काल में कर्म क्षय के लिए जिन बिंब एवं जिनागम ये दो साधन है कविवर्य वीरविजयजी ने चौसठ प्रकारी पूजा में गाया है।
विराम काल जिनबिंब जिनागम भवियन का आधारा जिणंदा तेरी अखियां नमे अविकारा ||
जिनप्रतिमा से अगर शुभ अध्यवसाय उत्पन्न नहीं होते तो यह दुर्भाग्य है :
करीर के झाड़ पर पत्ते नहीं आये तो वसन्त ऋतु का क्या दोष है ? जल की धारा चातक पक्षी के मूँह में नहीं गिरे तो मेघ का क्या दोष ? इसी प्रकार जिनेश्वर देव की प्रतिमा शुद्ध अध्यवसाय उत्पन्न करने का साधन है, परन्तु अशुभ परिणामी एवं हीन भावी जीवों को भाव उत्पन्न नहीं हों तो यह उनका दुर्भाग्य ही माना जावेगा। प्रभु प्रतिमा क्या दोष ?
परिणाम के कारण आस्रव भी संवर का कारण और संवर भी आस्रव का कारण बन जाता है।
आचारांग सूत्र में फरमाया है कि -
"जो आसवा ते परिसवा, जे परिसवा ते आसवा*
अर्थात परिणाम के कारण जो आस्रव (कर्म आने का) कारण हो, वह संवर (कर्म रोकने का कारण बनता है और जो संवर का कारण होता है, वह आसव का कारण बनता है।
इलायची पुत्र पाप के इरादे से बांस पर नाचते थे, इसलिए वह उनके लिए आस्रव का कारण बना, किंतु परिणाम की विशुद्धि से बांस पर नाचते हुए भी उन्हें केवलज्ञान उत्पन्न हो गया ।
भरत चक्रवर्ती दर्पण में अपने रूप को देखने लगे तो वह आस्रव का कारण हुआ, परन्तु मुद्रिका से शुभ भावना में आरूढ़ हुए तो उनको केवलज्ञान प्राप्त हो गया। इसी प्रकार से साधु-मुनिराज संवर एवं निर्जरा का कारण है, फिर भी उन्हें दुख देने या बुरा चिंतन करने से जीव अशुभ कर्मों का आस्रव करता है, परन्तु उससे साधु-मुनिराज
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