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श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ
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कष्ट-नुकसान पहुंचाने का संकल्प कर लिया जाता हो, वहां पर संकल्पी हिंसा होती है। चाहे उससे जीव का घात-कष्ट हो अथवा न हो इससे कोई अंतर नहीं पड़ता है। ऐसे जीव के तो हिंसा से होने वाला पाप बंध हो ही जाता है और यह बंध भी कोई साधारण कोटि का नहीं अपितु अनंतानुबंधी होता है। संकल्पी हिंसा तीव्र कषाय के उदय से होती है। कानून की दृष्टि में भी ऐसा जीव भयंकर अपराधी होता है। दूसरी प्रकार की हिंसा है विरोधी हिंसा। इसमें आक्रांता से अपनी रक्षार्थ विरोध करने पर न चाहते हुए भी आक्रांता का प्राणाघात होता है। दोनों प्रकार की हिंसाओं में जीव का वध होता है, पर दोनों में भावों का बहुत बड़ा अंतर है। संकल्पी हिंसा में मारने वालों के भावों में क्रूरता थीं, अतिरेकता है, जब कि विरोधी हिंसा में रक्षक के परिणाम क्रूरता के नहीं हैं, अपितु वहां रक्षा का एक प्रयत्न मात्र है। एक में हिंसा करनी होती है तथा दूसरे में हिंसा हो जाती है। तीसरी आरम्भी हिंसा है। यह गृहस्थाश्रम में होने वाले आरम्भ से होती है। बिना आरम्भ किये गृहस्थाश्रम का सूचारू रूप से चलना प्रायः असम्भव है। जैसे - जल का बरतना, चौका, चूल्ही, उखरी, झाड़ना, वस्त्र धोना आदि समस्त कार्यों में आरम्भ होता है। जहां आरम्भ होता है वहां हिंसा का होना भी अनिवार्य है। चौथी हिंसा उद्योगी हिंसा है। यह गृहस्थाश्रमी जीवों के उद्योग धंधों पर आधारित है। उद्योगी तथा आरम्भी हिंसाओं में जीव वध के परिणाम नहीं हैं किन्तु आरम्भजनित हिंसा होती है। आरम्भ सकषाय भावों से किया जाता है। इसलिए सकषाय मन-वचन-काय की प्रवृति होने से वहां भी हिंसा का लक्षण घटित होता है। आचार्यगण कहते है कि चार प्रकार की हिंसाओं के सर्वथा त्यागी संकल्प, विरोध, आरम्भ उद्योग रूप विचार एवं क्रियाओं से सर्वथा रहित निर्ग्रन्थ साधक होते हैं। गृहस्थ त्रस हिंसा का ही त्यागी हो सकता है। वह गृहस्थी होकर स्थावर हिंसा का त्यागी तो नहीं हो सकता अपितु प्रयोजनार्थ व्यर्थ की अनावश्यक हिंसा से यत्नाचार द्वारा अपने को बचा अवश्य सकता है। वास्तव में रागादिक भावों का उदय में नहीं आना अहिंसा, तथा उन्ही रागादि भावों की उत्पत्ति का होना हिंसा है। यथा -
'अप्रादुर्भावः खलु रागादीनां भवत्यहिसेति।
तेषा मेवोत्पत्ति हिंसेते जिनागमस्य संक्षेपः।। हिंसा का मूल स्रोत है सकषाय रूप प्रमाद। प्रमाद के अभाव में यदि प्राणों का घात होता है तो वहां हिंसा नहीं होती है। हिंसा का यह लक्षण अव्याप्ति, अतिव्याप्ति असंभव आदि समस्त दूसरों से रहित, समीचीन है। इसी आधार पर योग्य आचरण वाला अर्थात यतनाचार पूर्वक सावधानी से कार्य करने वाला रागादि रूप परिणामों के उदय हुए बिना प्राणों का घात मात्र होने से भी हिंसक की कोटि में नहीं आता है। इसके विपरीत रागादि के वश में प्रवर्तित प्रमाद के प्रभाव में जीव का घात–अपघात हो अथवा न हो, वह प्रमादी हिंसक कहलाता है। इस प्रकार प्रमाद के योग में नियम से हिंसा होती है।
जैनागम में स्पष्ट उल्लेख है कि हिंसा परिणामों के अधीन है, परिणामों से ही होती है, परिणामों में ही होती है। बाह्य पदार्थों में न तो हिंसा है और न हिंसा के कारण ही है। परिणाम के आधारों पर हिंसा- अहिंसा का विवेचन करते हुए कहा गया है कि हिंसा न करके भी कोई जीव हिंसा के फल का भोक्ता होता है तथा दूसरा जीव हिंसा करके भी हिंसा के फल का भाजन नहीं होता है। कारण एक के परिणाम भावहिंसा में रत हैं और दूसरे के हिंसा से विरत हैं। यथा -
'अविधायापि हि हिंसा, हिंसाफल भाजनं भवत्येकः ।
कृत्वाप्यपरो हिसां, हिसाफल भाजनं न स्यात|| इसी प्रकार किसी को थोड़ी भी हिंसा समय पर उदय काल में बहुत फल देती है तथा किसी जीव को बहुत बड़ी हिंसा भी फलकाल में थोड़ाफल देने वाली होती है। इसका मूल कारण यह है कि जिस समय जिस जीव के जैसे परिणाम मंद संक्लेशमय या तीव्र संक्लेशमय होते है, उसके जो कर्म बंध होता है, उसमें रसदान शक्ति तदनुरूप मंद या तीव्र पड़ती है और उदय काल में तदनुरूप कम या अधिक फल देती है। बाह्य कारण तो निमित्त मात्र है। परिणामों की सरागता अथवा वीतरागता ही हिंसा अहिंसा रूप फल की दात्री है। इसी प्रकार यदि दो जीव मिलकर किसी जीव की हिंसा करें तो उन दोनों को भी उस हिंसा का समान फल नहीं मिलता है। जिसके अधिक कषाय
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