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श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ
भ. पार्श्व के प्रमुख उपदेशों में विचारात्मक और आचारत्मक-दोनों कोटियाँ समाहित है। इस आलेख में इनका संक्षिप्त विवरण देने का प्रयास किया है। यहाँ यह संकेत देना आवश्यक है कि मैं इतिहासज्ञ नहीं हूँ, धार्मिक ग्रंथों का वैसा अध्येयता भी नहीं हूँ जैसी यह विद्वन मंडली हैं। अतः इस आलेख में अनेक अपूर्णतायें होंगी। आपके बुद्धिपरक सुझाव मुझे प्रिय होंगे। ऋषि भाषित में पार्श्व ऋषि के उपदेश:
दिगम्बर ग्रन्थों में ऋषि भाषित का उल्लेख नहीं मिलता, पर श्वेताम्बर मान्य स्थानांग, समवायांग तथा उत्तरवर्ती ग्रन्थों में इसका प्रश्नव्याकरण के अंग अथवा कालिक श्रुत के रूप में और तत्वार्थाधिगम भाष्य" में अंगबाह्य के रूप में इसका विवरण मिलता हैं । जैन इसे अर्धमागधी का प्राचीनतम आचारांग का समवर्ती या पूर्ववर्ती 500-300 ई.पू. का ग्रन्थ मानते हैं। इसमें 45 ऋषियों के उपदेशों में अर्हत पार्श्व और वर्द्धमान के उपदेश भी सम्मिलित हैं। यही एक ऐसा स्तोत्र हैं जिसमें भ. पार्श्व के उपदेश मूल रूप में, बिना कथानक के, पाये जाते हैं। इसके अतिरिक्त, यह प्राचीनतम रूपों में से अन्यतर ग्रन्थ माना जाता हैं। फलतः इसी ग्रन्थ से हम भ. पार्श्व के उपदेशो की चर्चा करेंगे।
इसमें जहाँ वर्द्धमान के कर्मवाद और कर्म संवर के उपाय- इन्द्रीय विजय, कषाय विजय एवं मन विजय (उन्नीस गाथाओं में बताया गये हैं, वही पार्श्व ऋषि के उपदेश (चौबीस सूत्रों में) निग्रंथ प्रवचन का संपूर्ण सार प्रस्तुत करते है जिन्हें महावीर ने अधिकाँश में मान्य किया। पार्श्व के इन उपदेशों में (1) विचारात्मक (2) आचारात्मक-दोनों रूप समाहित हैं। वैचारिक दृष्टि से, पार्श्व के उपदेशों में (1) पंचास्तिकाय (2) आठ कर्म, कर्म बंध, कर्म विपाक आदि के रूप में कर्मवाद (3) चार गतियाँ और मुक्तिवाद (4) शाश्वत, अनन्त, परिमित एवं परिवर्तनशील विशिष्ट आकार का लोक (5) जीव और अजीव तत्व और उनकी ऊर्ध-अधोगति तथा जीव का कर्तृत्व-भूक्तृत्व (6) चातुर्याम धर्म (7) द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव के दृष्टिकोणों से वर्णन की निरूपणा (8) हिंसा एवं मिथ्या दर्शन आदि अठारह पापस्थानों की दुख करता (9) इनसे विरति की सुख करता आदि के सिद्धान्त प्रतिपादित किये गये हैं।
आचारगत उपदेशों में बताया गया है कि मनुष्य को हिंसा, कषाय एवं पाप स्थानों में प्रवृत्ति नहीं करना चाहिए क्योंकि ये दुःख के कारण हैं। सम्यग् ज्ञान एवं दर्शन से सुख की प्राप्ति होती हैं। प्राणियों को अचित्त आहार एवं सांसारिक प्रपंच-विरमण करना चाहिए जिससे भव-भ्रमण का नाश हो। प्राणियों को चातुर्याम धर्म का पालन करना चाहिये। इसके पालन से कर्म-द्वार संवृत होते हैं।
_पार्श्व के ये उपदेश हमें आत्मवाद एवं निवृत्तिमार्ग का उपदेश देते हैं। इन उपदेशों में सचेल-अचेल मुक्ति की चर्चा नहीं हैं, मात्र चातुर्याम धर्म की चर्चा हैं। ऐसा प्रतीत होता हैं कि यह विषय उत्तरवर्ती काल में विचार-विन्दु बना होगा वैसा केशी-गौतम या अन्य संवादों में प्रकट होता हैं। इस ग्रन्थ में 'जीव' एवं 'अन्त' (आत्मा)- दोनों शब्दों का उपयोग समान अर्थ में किया लगता हैं। इससे प्रकट होता है कि भ. पार्श्व के विचारों पर उपनिषदीय 'जीवत्मवाद' का प्रभाव पड़ा हैं। अन्य ग्रन्थों में यत्र-तत्र जो भी पार्श्व के उपदेश या उनका सन्दर्भ पाया जाता हैं, वह ऋषिभाषित के सूत्रों का विस्तार या किंचित्त परिवर्धन (सचेल-अचेल मुक्ति आदि) का रूप हैं। उत्तराध्ययनः केश-गौतम संवादः विज्ञान और प्रज्ञा का उपयोग आवश्यकः
चटर्जी उत्तराध्ययन को पाचंवी सदी ईसा पूर्व का ग्रंथ मानते हैं। इसके तेइसवें अध्ययन में पार्खापत्य केशी एवं महावीर के गणधर गौतम का एक ज्ञानवर्धक संवाद है। राजप्रश्नीय के केशी-प्रदेशी के संवाद में यही पापित्य केशी आचार्य हैं। इस संवाद के अनुसार, एक बार कुमार श्रमण केशी और गणधर गौतम एक ही समय श्रावस्ती (उ.प्र.) के अलग-अलग दो उद्यानों में ठहर थे। दोनों के ही मन में एक दूसरे से मिलने की एवं एक दूसरे की परम्पराओं को जानने की जिज्ञासा हुयी। गौतम संघ सहित केशी से मिलने गये। केशी ने उनसे बारह प्रश्नों पर जिज्ञासा की! इनमें दो प्रश्न महत्वपूर्ण हैं। एक ही लक्ष्य होते हुये चातुर्याम एवं पंचयाम तथा वेश की द्विविधता के
हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति 78
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