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श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन था
उपदेश का क्या कारण हैं? गौतम ने इस विषय में बहुत ही वैज्ञानिक दृष्टि का आश्रय लिया और बताया कि- (1) उपदेश शिष्यों की योग्यता एवं लौकिक दशाओं के आधार पर दिया जाते हैं। भ. पार्श्व के समय साधु और श्रावक ऋजु और प्राज्ञ होते थे और भ. महावीर के समय ये वक़ और जड़ होते हैं। अतः दोनों के उपदेशों में धर्म और तत्व का उपदेश प्रज्ञा और बुद्धि का प्रयोग कर देना चाहिए। महावीर ने वर्तमान दशा को देखकर ही विभज्यवाद के आध पार पर ब्रह्मचर्य व्रत जोड़कर पंचयाम का उपदेश दिया। भ. पार्श्व के युग मे यह अपरिग्रह के अन्तर्गत समाहित होता था। ऐसा प्रतीत होता है कि भ. पार्श्व के युग में विवाह-प्रथा का प्रचलन किंचित् शिथिल रहा होगा। महावीर ने उसे पांचवें याम के आधार पर सुदृढ़ बनाया और सामाजिकता का सम्वर्द्धन किया। तत्वतः इसमें भिन्न-पथता नहीं, व्याख्या-स्पष्टता ही अधिकता है। मूलाचार 7.535-39 में भी परोक्षतः यही कहा गया है।
(2) इसी प्रकार, वेश (सचेल-अचेल) संबंधी द्विविधता भी केवल व्यावहारिक है। यहां भी वैज्ञानिक आधार ही धर्म के साधनों का अवलंबन करने की बात है। निश्चय दृष्टि से तो धर्म के मुखय साधन ज्ञान, दर्शन और चारित्र ही हैं। इस प्रकार वेश गौण है। इस पर बल देने की अनिवार्यता नहीं है। भरत चक्रवर्ती आदि बिना वेश के ही केवली हुए हैं। यहां 'निश्चय' शब्द का उपयोग हुआ हैं जो महत्वपूर्ण है। जो केवल सचेल मुक्ति ही मानते हैं, वे सही नहीं हैं। सचेल-अचेल संबंधी मान्यताओं का यह प्रथम उल्लेख लगता है।
इन दो परम्परागत विचार-भेदों के उपदेशों के अतिरिक्त अन्य 10 प्रश्नोत्तर बिंदु पार्श्व और महावीर-दोनों ने ही स्वीकृत किये हैं। इस प्रकार इन दोनों परम्पराओं में लगभग 17 : मत भिन्नता प्रकट होती है। इन 10 बिंदुओं में (1) मनोनियंत्रण के माध्यम से इंद्रिय-कषायविजय (2) राग-द्वेष-स्नेह रूपी पाशों से मुक्ति (3) भव-तृष्णा रूपी लता को उत्तम चारित्र रूपी अग्नि से नष्ट करना (4) कषाय रूपी अग्नि को तपोजल से शमित करना (5) मन रूपी दुर्दात अश्व को श्रुत एवं संयम से वश में करना (6) सु-प्रवचन के मार्ग पर चलना (7) धर्म-द्वीप से प्रकाशित होना (8) संसार समुद्र को मोक्षैषणा द्वारा पार करना (9) अज्ञान अंधकार को अर्हद् वचन के नष्ट करना तथा (10) मुक्त स्थान प्राप्त करना। ये बिंदु उपमाओं के माध्यम से मनोवैज्ञानिक आधार पर प्रभावी रूप से व्यक्त किये गये हैं। सूत्र कृतांगः गौतम पेंढालपुत्र उदक संवादः श्रावकों का धर्मः
वर्तमान बिहार प्रदेश के नालंदा नगर के मनोरम उद्यान में गौतम गणधर और पार्खापत्यीय पेंढालपुत्र उदक का हिंसा और कर्मबधं विषयक मनोरंजक संवाद आया है। गौतम ने उदक को बताया कि साधु या श्रमण तो सर्व हिंसाविरति का उपदेश देता है, पर गृहस्थ अपने सीमाओं के कारण स्थूल या त्रस-हिंसा का ही त्याग कर पाता है। इसका यह अर्थ नहीं लेना चाहिए कि श्रमण उसे त्रसहिंसा त्याग स्थावर हिंसा की अनुमति देता है और स्वयं तथा श्रावक के मापबंध का भागी होता है।गृहस्थ की स्थावर हिंसा उसके अप्रत्याख्यानी पापबंध का कारण बनती है। वस्तुतः त्रसकाय में आयुष्य भोग रहे प्राणी ही त्रस माने जाते हैं। यह भी सही नहीं है कि ऐसा कोई भी पर्याय नहीं जहाँ गृहस्थ प्राणी हिंसा का त्याग कर सके क्यांकि सभी स्थावर न तो त्रस के रूप में या सभी त्रस स्थावर के रूप में जन्म ले पाते हैं। साथ ही, देव, नारकी एवं विक्रिया वृद्धि धारकों तथा उत्तम संहननी जीवों की हिंसा तो वह कर ही नहीं सकता। फलतः अनेक पर्यायें ऐसी हैं जहाँ हिंसा का परित्याग हो सकता है। व्रत-भंगी नहीं कहा जा सकता। फलतः हिंसा-अहिंसा संबंधी व्रत पालन का अर्थ यह लौकिक जीवन एवं पर्याय–विषेष के आधार पर लेना चाहिए। भगवती सूत्र और भ. पार्श्व के उपदेशः
ऐसा माना जाता है कि भगवती सूत्र के पूर्ववर्तीय शतक प्राचीन है। इनमें 1.9, 2.5, 5.9, 9.32 आदि में पार्खापत्यों एवं स्थविरों के विवरण और कहीं कहीं उपदेष भी पाए जाते हैं। इनमें कहीं कहीं पार्खापत्यों श्रावक/स्थविर महावीर के पंचयामी एवं सप्रतिक्रमणी धर्म में दीक्षित होते भी बताये गये हैं। वैश्यपुत्र कालास के कथानक में बताया गया है कि सामायिक, प्रत्याख्यान, संयम, संवर, विवेक और व्युत्सर्ग को दो प्रकार से परिभाषित
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