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श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ
सहित परिणाम होगें उसे अपेक्षाकृत अधिक फल मिलेगा एक कार्य में प्रवृत्त होने पर भी एवं समान क्रिया करने पर भी परिणामों की तीव्रता और मंदता के कारण दो जीवों में से एक अधिक पापी बनकर अशुभ कर्म बांधता है, दूसरा कम पापी होकर उससे हल्का अशुभ कर्म बांधता है।
आचार्यगण इस बात पर अत्यधिक बल देते हैं कि जीव चाहे हिंसा करें या न करें पीछे करें या पहले करें या फिर उसी समय करें परन्तु जीव के जिस समय जैसे परिणाम होंगें उन परिणामों से जैसे उसने कर्म बांधे होंगें समय पाकर वे कर्म उदय में आकर उसे वैसा फल अवश्य देंगें। इस प्रकार हिंसा का फल जीव को भावों के अनुसार प्राप्त होता है चाहे दूसरे जीव की उसके द्वारा हिंसा हो अथवा न हो यदि उसके भावों में हिंसा रूप प्रवृत्ति है तो उसे हिंसा का फल अवश्य प्राप्त होगा। आचार्य आगे बताते हैं कि एक जीव हिंसा करता है परन्तु फल के भागीदार अनेक होते हैं। यथा :
'एक करोति हिंसा भवन्ति फल भागिनो बहवः । बहवोविदधाति हिंसा हिंसा फल भुग्भवत्येकः ॥
इन सबसे एक ही बात ध्वनित है और वह है जीव के परिणामों - भावों की विचित्रता । वास्तव में संसारी जीवों को परिणामों, भावों के आधार पर ही हिंसा का फल मिलता है।
हिंसा के रूप-स्वरूप पर विवेचनोंपरांत इस विषय पर भी चर्चा करना असंगत न होगा कि वे कौन से पदार्थ हैं जिनके सेवन से अत्यधिक जीवों की हिंसा होती है। सर्वप्रथम आचार्यों ने अष्ट मूल गुणों मद्य, मांस, मधु, तथा पांच उदम्बर फलों के त्यागने पर बल देते है यथा :
'मद्यं मासं क्षौद्रं पंचोदुम्बर फलानि यत्नेन । हिंसा व्युपरीत कामेर्भोक्तयानि प्रथममेव ॥
आचार्य मक्खन (लोनी) को भी त्यागने की बात करते हैं क्योंकि यह भी एक प्रकार हिंसा जनित अभक्ष्य पदार्थ हैं मक्खन (लोनी) को अभक्ष्य इसलिए कहा गया है कि इसमें दो मुहूर्त के पश्चात अनेक समूर्च्छन जीव राशि पड़ जाती है। अस्तु, दो मुहूर्त के पश्चात अर्थात चार घडी के उपरांत तो वह अनेक जीव राशि का पिंड हो जाने से भक्ष्य ही नहीं रहता है। आचार्य बताते हैं कि अनेक ऐसे पदार्थ हैं जिनमें दोष भी नहीं हैं अर्थात जिनमें जीव राशि भी नहीं है तो भी आकृति से खराब होने के कारण जिन्हें देखने में परिणामों में कुछ विकार भाव हो जाता है। अतः वे पदार्थ भी अभक्ष्य और त्याज्य हैं।
जैनागम में धर्मार्थ हिंसा को पाप में परिगणित किया गया है। यहां धर्म का संकेत उस धर्म से है जहां यज्ञादि में पंचेन्द्रिय पशुओं को होम दिया जाता है देवताओं के नाम पर पशुओं की बलि चढ़ाई जाती है। अनेक प्रकार से तीव्र हिंसा की जाती है। ऐसा धर्म, धर्म न होकर अधर्म है। धर्म के यथार्थ स्वरूप - मर्म को समझकर ही धारण
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दयामय होता है। किसी भी निमित्त से जीवों
करना अहिंसक जीवन के लिए आवश्यक है। धर्म सदा अहिंसामय, के वध करने में नहीं अतिथि के लिए भी प्राणीघात करना पाप है
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जहां स्थावर जीवों के घात का निषेध बताया
हिंसक जीव के प्राण हनन को
क्योंकि जिस जीव के जैसे भाव
गया है वहां त्रस जीवों के घात को महापाप से अभिहित किया है। इतना ही नहीं भी निंद्य माना गया है। चाहे उससे बहुत से जीवों की रक्षा ही क्यों न होती हो हैं उसके अनुसार वह पुण्य पाप का बंध करता है। हम व्यर्थ में पुण्य पाप के भागीदार क्यों बनें ? इसी प्रकार जिन जीवों को बहुत कष्ट हो रहा हो, उन्हें भी नहीं मारना चाहिए, सुखी जीवों को भी नहीं मारना चाहिए। इनता ही नहीं आगे बताया गया है कि स्वगुरु का शिरच्छेद करना भी पाप है, हिंसा है। भूख से व्याकुल जीव को भी मांसादि अभक्ष्य पदार्थ कभी नहीं देना चाहिए और न किसी प्रकार धर्म के निमित्त आत्मघात में ही प्रवृत्त होना चाहिए। आत्मघात के समान अन्य कोई दूसरा पाप नहीं है । संसारी जीव में इस प्रकार की समझ अज्ञानता मिथ्या मान्यताओं का ही परिणाम हैं जिससे वे पुण्य की अपेक्षा अपने आप को पापगर्त में गिराते है।
हेमेन्द्र ज्योति हेमेन्द्र ज्योति
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