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श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ ।
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जैन धर्म में अभिव्यक्त हिंसा-अहिंसा
श्रीमती अर्चना प्रचण्डिया श्रमण संस्कृति में आचार – पक्ष पर विशेष बल दिया गया। आचार का आधार है अहिंसा। अहिंसा की चर्चा मात्र भारतीय संस्कृति में ही नहीं विश्व की समस्त संस्कृतियों में अपने अपने ढंग से अभिव्यक्त है। इस्लाम संस्कृति में अपने सहधर्मियों के साथ भ्रातृवत् व्यवहार करना, ईसाई मत में आदर, प्रेम व सहानुभूति, पशु पक्षी आदि प्राणधारियों की अपेक्षा केवल मानव तक ही सीमित होना, वेद, उपनिषदों में यज्ञ में होने वाली हिंसा तथा अन्यान्य भौतिक सुख हेतु की गई हिंसा का त्याज्य न होना आदि आदि, किन्तु इन सबमें अहिंसा का जो रूप श्रमण संस्कृति में है वह निश्चयेन अनुपलब्ध है। वहां हिंसा का अर्थ है असद्प्रवृत्तिपूर्वक किसी प्राणी का प्राण वियोजन करना तथा अहिंसा का अर्थ है प्रमाद से रहित प्रामाणिक तथा जाग्रत जीवन जीना।
जैन संस्कृति के अनुसार मन-वचन-काय से अपने तथा पर के अथवा दोनों के परिणामों में आघात पहुंचना तथा दुख संताप कष्ट होना वस्तुतः हिंसा है। यथा :
'आत्म परिणामहिंसन हे तत्वात्सर्वमेव हिसैतत्।
अनृत-वचनादि केवल मुदाहृतं शिष्य बोधाय। इसे दो प्रकार से समझा जा सकता है - एक भाव हिंसा से तथा दूसरा द्रव्य हिंसा से। आत्मीय भावों की हिंसा अर्थात आत्मा के अशुभ परिणाम अर्थात रागद्वेष प्रमादात्मक प्रवृत्ति को भाव हिंसा तथा प्राणों का वियोग (आयु विछेद) अर्थात शरीर के किसी अवयव की अथवा समस्त शरीर की हिंसा को द्रव्य हिंसा कहा जाता है।
इसके भी दो-दो भेद हैं - भावहिंसा में एक स्वभाव हिंसा दूसरी परभाव हिंसा, द्रव्य हिंसा में एक स्वद्रव्य हिंसा तथा दूसरी परद्रव्य हिंसा। स्वभाव हिंसा में जीव का अपने शुद्धोपयोग रूप भाव प्राणों का तथा परभाव हिंसा में दूसरे के भावप्राणों का घात होता है। इसी प्रकार स्वद्रव्य हिंसा में जीव के अपने द्रव्य प्राणों का तथा परद्रव्य हिंसा में दूसरे के द्रव्य प्राणों का घात होता है।
हिंसा
भाव हिंसा
द्रव्य हिंसा
स्वभाव हिंसा, परभाव हिंसा,
स्वद्रव्यहिंसा, परद्रव्यहिंसा द्रव्यहिंसा में भाव हिंसा गर्भित होने के कारण भावहिंसा को ही सूक्ष्म एवं प्रधान माना गया है। इन सबमें एक बात ज्ञातव्य है कि मात्र किसी जीव का मारा जाना अथवा उसके अंगों का भंग हो जाना हिंसा नहीं है। हिंसा के लिए सकषाय, मन, वचन, काय से भाव प्राण तथा द्रव्यप्राणों का घात होना अत्यंत आवश्यक है। यथा -
'यत्खलुकषाय योगात्प्राणानां द्रव्य भाव रूपाणां।
व्यपरोपणस्य करणं सुनिश्चिता भवति सा हिंसा।।' यह परम सत्य है कि आत्म स्वभाव को छोड़कर जितने भी विकृत भाव हैं वे सब हिंसा स्वरूप हैं अर्थात पापों के जितने भी भेद - प्रभेद कहे जाते हैं, वे सब हिंसा के ही अपरनाम है। उदाहरणार्थ- झूठ बोलना, चोरी करना, कुशील सेवन करना, तृष्णा बढ़ाना तथा रागद्वेष करना इत्यादि।
संसारी जीव के दैनिक क्रिया कलापों के आधार पर हिंसा को मूलतः चार भागों में केन्द्रित किया गया है1. संकल्पी हिंसा, 2. विरोधी हिंसा, 3. आरम्भी हिंसा, 4. उद्योगी हिंसा। इन चारों में सबसे अधिक हानिकारक तथा सर्वप्रथम त्याज्य है संकल्प के साथ होने वाली हिंसा। जहां पर भावों में दूसरे जीवों का घात या किसी प्रकार का
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