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श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ
जिनमूर्ति की भक्ति द्वारा अपने आत्मगुणों को प्राप्त करना :
जिनमूर्ति से किसी प्रकार का द्रव्य प्राप्त करने का प्रश्न ही नहीं उठता है, किन्तु जिनमूर्तियों के निमित्त से सम्यग्दर्शनादि गुणों को अपनी स्वयं की आत्मा में प्रकट करने का है। जिन प्रतिमा की भक्ति द्वारा सम्यग्दर्शनादि गुणों पर जो आवरण आ गये हैं, उनको दूर करके पूजक अपने आत्मगुणों को अवश्य ही प्रकटा सकता है। 'प्रसन्न करने की जरूरत नहीं होने से प्रतिमा पूजन निष्फल नहीं है :
जिनेश्वरदेव प्रसन्न होगें, ऐसा मान कर पूजन करना ठीक नहीं है। जिनेश्वर तो प्रसन्न या अप्रसन्न नहीं होते हैं। अगर प्रसन्न या अप्रसन्न हो तो वे जिनेश्वर जिनेश्वर देव कहला ही नहीं सकते हैं। पूजक के शुभ परिणामों की उत्पत्ति से ही उसका उद्धार हो सकता है ऐसे शुभ परिणामों की जागृति जिनेश्वर की पूजा से होती है।
जिन प्रतिमा के पूजन से वीतराग का तो कोई लाभ नहीं होता किन्तु पूजा करने वालों को तो अवश्य ही लाभ होता है। उससे दोषों के निवारण के अतिरिक्त बहुमान, कृतज्ञता, विनय आदि गुण प्रकट होते हैं। इससे कर्मों की निर्जरा होती है। जिनेश्वर की प्रतिमा गुणों की प्राप्ति और दोषों के निवारण में निमित है।
जैसे-जैसे जिनेश्वर भगवान की प्रतिमा के प्रति प्रेम की वृद्धि और श्रद्धा सुदृढ़ होगी, संवर और निर्जरा विशेष होगी क्योंकि प्रेम और श्रद्धा के फलस्वरूप गुण प्राप्ति की ओर अग्रसर होने में आत्मा का उत्साह बढ़ता है। जिन मंदिर एवं प्रभुपूजन में उपयोग में आनेवाले द्रव्य मूर्छा भाव का त्याग और विराग भाव को पैदा करते हैं :
द्रव्यपूजा में उपयोग में आने वाली वस्तुएँ अगर दूसरे स्थान पर हो तो उनके प्रति मोह पैदा होता है, परन्तु जिनमंदिर में ऐसे नहीं होता बल्कि वे रागादिक के नाश का कारण बनती है। जैसे बगीचे में सुगंधित फूलों को देखकर उनको तोड़ कर सूंघने का मन होता है, परन्तु पूजा के लिए लाए गये फूलों का हम उपयोग नहीं कर सकते हैं। मंदिर में घंटाल, चंवरादि क्यों :
तीर्थंकर भगवान के आठ प्रतिहार्य हैं मंदिरों में ये प्रतीक के रूप में पाये जाते हैं। उच्च शिखर अशोक वृक्ष की अनुभूति करवाता है। ये घंटाल, शंख आदि की ध्वनियाँ दिव्य ध्वनि और दुंदुभि की स्मृति करा देते हैं। उस समय भी ये नाद मानवों को अपने प्रपंचों से मुक्ति ले कर तीर्थपति की शरण में जाने का संकेत करते थे। आज भी ये घंटाल प्रबल घोष के साथ जिनदेव के समीप जा कर जागृत रहने का आवाह्न कर रहें है। ये चामर आज भी उस समवशरण में रहने वाले प्रतिहायौ के अंगभूत होने की साक्षी दे रहें हैं।
वह बतला रहें कि हम प्रभु के चरणों में प्रथम भक्ति भाव से झुकते हैं, तो बाद में ऊपर उठते हैं। इसी प्रकार
प्रभु चरणों में समर्पित हो जाय तो वह अपनी आत्मा का कल्याण करके ऊर्ध्वगति को प्राप्त हो सकता है। मंदिरों में रखे जाने वाले त्रिगढ़ सिंहासन व जिनदेव को प्रतिश्ठित करने की वेदी त्रिभाग उपर्युपरि उस देवकृत समवशरण की महिमा को प्रकाशित कर रहें हैं। जिनदेव के पृष्ठभाग में रखा जाने वाला भामंडल भक्त हृदय में आज पर्यन्त उस क्रांते की गहरी छाप बनाए हुए है। ये छत्र-त्रय अभी तक उनकी त्रैलोक्य पूज्यता का स्पष्ट परिचय प्रदान करते हैं।
विभिन्न दृष्टिकोणों से मूर्तिपूजा के महत्व को समझकर साधक शुद्ध चित से भांकारहित हो कर प्रभु की पूजा करता है तो निश्चय ही भावों की शुद्धि होगी और वह आत्म कल्याण के पथ पर निरन्तर अग्रसर होता रहेगा।
हेगेन्द ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति 57
हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति ।
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