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श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ
की पूजनीयता नष्ट नहीं होती है। इसी प्रकार जिनेश्वर भगवान की प्रतिमा, किन्हीं लोगों को परिणाम के अभाव में, निर्जरा या संवर का कारण नहीं बन सके, उससे जिन प्रतिमा की उपयोगिता कम नहीं होती है। जिन प्राणियों में जिन प्रतिमा के लिए भक्ति राग होगा, उनके लिए ही वह संवर एवं निर्जरा का कारण बनती है। इलायची पुत्र और भरत चक्रवर्ती के उदाहरण में, परिणाम के उत्पन्न होने में निमित्त कारण तो बांस और दर्पण ही था।
कार्य की सिद्धि उपादान कारण से होती है, फिर भी उसमें निमित्त कारण निरुपयोगी नहीं होता। निमित्त कारण होगा तो उपादान कारण पैदा होगा। आत्मा को आत्म स्वरूप प्राप्त करने में जिनेश्वर भगवान की मूर्ति निमित्त कारण है।
अभय कुमार द्वारा भेजी गई ऋषभदेव की प्रतिमा देखकर आर्द्रकुमार को प्रतिबोध हुआ और सम्यक्त्व रत्न प्राप्त कर अनुक्रम से मुनिराज बन आत्म कल्याण किया। दशवैकालिक सूत्र के रचयिता पूज्य श्री शयंभवसूरिजी को श्री शांतिनाथजी की प्रतिमा देखकर प्रतिबोध हुआ।
इस प्रकार जिनेश्वर देव की प्रतिमा तीनों काल में मोक्ष प्राप्ति के लिए आलंबन बनती है। प्रतिमा पूजन में भावुक आत्मा जिन मूर्ति का निमित्त लेकर जन्मावस्था को लक्ष्य में रखकर प्रक्षाल करते हैं, और राज्यावस्था को ध्यान में रखकर, मुकुट, कुंडल हार आदि पहनातें हैं। फिर भी भक्तों का दृष्टि बिंदु तो वीतराग की भक्ति करने का है, इससे भक्त के चित्त में प्रसन्नता होती है और क्रमशः मोक्ष पद की प्राप्ति हो सकती है। प्रभु की द्रव्य पूजा में हिंसा नहीं है :
प्रभु की द्रव्य पूजा में जो हिंसा का दोष मानते हैं, वह उचित नहीं है। क्योंकि जिसमें जीव की हिंसा होती है, वह सब क्रियाएँ हिंसक है या जीव वध हिंसा है - ऐसा जैन शासन में कहीं नहीं कहा है।
जैन शास्त्रानुसार विषय कषायादि की प्रवृति करते हुए अन्य जीवों का प्राण नाश हो उसका नाम हिंसा है। आचार्य उमास्वाति ने तत्वार्थ सूत्र में कहा है कि - "प्रमतयोगात प्राणव्यनरोपण हिसा" | विषय कषायादि की प्रवृति के सिवाय होने वाले “प्राणव्यपरोपण" आदि को हिंसा मानने में आवेगी तो दानादि कोई भी धर्म प्रवृति नहीं हो सकेगी।
जिनेश्वरदेव की द्रव्यपूजा शुद्ध भाव से करने से संवर और निर्जरा होती है, कारण कि द्रव्यपूजा करने वाली आत्मा को पूजा करने के कारण दानादि विविध धर्म की आराधना होती है। जिनेश्वरदेव की पूजा से "छह आवश्यक” की साधना हो जाती है :
भावपूजा की शुरूआत में तीसरी निसिही" बोलने से सामायिक का स्वरूप आ जाता है, यह सामायिक नामक प्रथम आवश्यक हुआ। इसके बाद चैत्यवंदन में लोगस्स सूत्र बोलने से चउविसथ्थो नामक दूसरा आवश्यक हुआ। इसके बाद चैत्यवंदन करते “जावन्त केविसाहु सूत्र से गुरुवंदन नामक तीसरा आवश्यक हुआ। इसके बाद स्तवन के द्वारा पूजक अपने पापकृत्यों का प्रायश्चित या पश्चाताप करता है, यह प्रतिक्रमण नामक चौथा आवश्यक हुआ। बाद में जयवियराय, अरिहंत चेइआणं, तस्सउत्तरी, अन्नथ कहकर बाद में काउसग्ग करते हैं, यह पाँचवां आवश्यक हुआ। अंत में प्रभु के सन्मुख यथाशक्ति पच्चक्खाण करें, यह छठा आवश्यक हुआ। इससे ज्ञात हो जायेगा कि पूजन कितना लाभदायक है। गुणस्मृति हेतु मूर्तिपूजा सर्वमान्य है :
गुणी पुरुषों के गुणों को स्मरण करने और उन गुणों को अपनी आत्मा में प्रकट करने के प्रयास करने में प्रभु-प्रतिमा परम सहायक है।
हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति 56
हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति
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