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श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ
यह भी स्मरण रखना होगा कि जैनधर्म की अहिंसा कायरों की अहिंसा नहीं है। अहिंसक व्यक्ति वीर होता है।, कायर नहीं। वह आत्म-रक्षा के लिए उचित प्रतिकार भी करता है। भगवान महावीर के अनेक राजा भक्त थे। वे सुचारू रूप से राज्य का संचालन करते थे। भगवान महावीर ने उनकों यह संदेश दिया था कि आवश्यकता से अधिक शस्त्र और अस्त्रों का संग्रह न करो। आवश्यकता से अधिक संग्रह व्यक्ति को उद्दण्ड और बेलगाम बनाता है। जैन तीर्थंकरों ने कभी भी युद्धों का समर्थन नहीं किया। उन्होंने युद्धों में मरने वालों को मोक्ष भी नहीं माना। वे नरसंहार को उचित नहीं मानते। उन्होंने सदा हिंसा का विरोध किया और अहिंसा का समर्थन किया। अहिंसा विश्व शांति का सर्वश्रेष्ठ साधन है जिसकी अमोघ शक्ति के सामने संसार की समस्त संहारक शक्तियां कुण्ठित हो जायेंगी। आज मानव तन से सन्निकट होता जा रहा है। वैज्ञानिक साधनों की प्रचुरता से क्षेत्र की दूरी सिमटती चली जा रही है। पर परिताप है कि मानव में स्नेह और सद्भावना की गंगा भी सूखने लगी है, अभय और मैत्री का उपवन मुर्झा रहा है, भय, छल, छद्म और धोखाधड़ी के कंटीले झाड़ झंखड़ उसके स्थान पर उत्पन्न हो रहे है। प्रत्येक देश की शक्ति अणु अस्त्रों के निर्माण में लग रही है। आज इतने अणु शस्त्र तैयार हो गये हैं कि वर्तमान में जो सम्पूर्ण सृष्टि दिखलाई दे रही है वह एक बार नहीं, अनेक बार उन शस्त्रों से नष्ट की जा सकती है। आज संसार महाविनाश की कगार पर खड़ा है। तृतीय विश्व युद्ध कब हो जाय, कहा नहीं जा सकता। बड़े-बड़े राष्ट्रनायक भी चिन्तित हैं। ऐसी भयाक्रान्त स्थिति में शान्ति और विश्वास का वातावरण निर्माण करने की शक्ति अहिंसा में ही रही हुई है। अहिंसा की शक्ति से ही विश्व में शान्ति का संचार हो सकता है। प्रेम, सद्भाव और सहयोग के सुगन्धित सुमन खिल सकते हैं आचार्य समन्तभद्र के शब्दों में कहा जाये तो "अहिंसा भूतानां जगति विदितं ब्रह्म परम्" अर्थात् अहिंसा ही प्राणियों के लिए परम ब्रह्म या परम संजीवनी शक्ति है।
ऋग्वेद में ऋषि ने लिखा है - जो व्यक्ति किसी को राक्षस भाव से नष्ट करना चाहता है वह स्वयं अपने द्वारा किये गये पापों द्वारा ही खत्म हो जाता है। यजुर्वेद में कहा है तू अपने शरीर से किसी को भी पीड़ित न कर । अर्थवेद के ऋषि के शब्दों में कहा जाये तो वे क्रान्तदर्शी हैं जो ऐश्वर्यशाली होकर भी किसी भी प्राणी को पीड़ित
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नहीं करते अहिंसा जीवन का शाश्वत मूल्य है, वह सार्वभौम तत्व है जो पूर्ण वैज्ञानिक है।
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जैन दर्शन की अहिंसा निष्क्रिय अहिंसा नहीं अपितु वह विधेयात्मक है उसमें विश्व बन्धुत्व, परोपकार आदि की निर्मल भावनाएँ तरंगित हो रही है। जैन आगम प्रश्नव्याकरण में अहिंसा के साठ नाम दिये है उसमें दया, अभय, रक्षा आदि ऐसे नाम हैं जो अहिंसा के विधेयात्मक पक्ष को उजागर करते हैं। भाषा शास्त्र की दृष्टि से अहिंसा शब्द निषेधवाचक है जिससे व्यक्ति भ्रम में पड़ जाते हैं कि अहिंसा केवल निवृत्तिपरक ही है, उसमें प्रवृत्ति को कोई स्थान नहीं। पर गहराई से चिन्तन करने पर यह स्पष्ट होता है कि उसके दोनों पहलु हैं, प्रवृत्ति और निवृत्ति इन दोनों का अन्योन्याश्रय सम्बन्ध है। उसमें एक से निवृत्ति है तो दूसरे में प्रवृत्ति भी है। अहिंसा के ये दोनों पहलु हैं। नहीं मारना यह अहिंसा का ही एक पहलु है। मैत्री, करुणा, दया और सेवा यह अहिंसा का दूसरा पहलु है। यदि हम अहिंसा के केवल नकारात्मक पहलु को ही समझते हैं तो वह अहिंसा की अपूर्ण परिभाषा होगी। अहिंसा की परिभाषा नकारात्मक और विधेयात्मक दोनों रूप मिलकर होती है। अहिंसा से सम्पूर्ण जीवों के साथ मैत्री स्थापित करना, उन जीवों की सेवा शुश्रूषा करना, उन्हें कष्ट से मुक्त करना भी आवश्यक है।
जैनधर्म और दर्शन में अहिंसा के संबंध में बहुत गहरा चिन्तन है। विविध दृष्टियों से उन्होंने उस पर चिन्तन किया है। एक दृष्टि से हिंसा के दो प्रकार है। एक द्रव्य हिंसा है तो दूसरी भाव हिंसा है। द्रव्य हिंसा वह है जो स्पष्ट रूप से दिखलाई देती है और भावहिंसा वह है जो ऊपर से भले ही हिंसा के रूप में दिखलाई न देती हो किन्तु अन्तर्मानस में द्वेष पनप रहा हो। क्रोध, मान, माया और लोभ के बवण्डर उठ रहे हों, जो दूसरों के जीवन को नष्ट करना चाहता हो वह भाव हिंसा है। भाव हिंसा सर्वप्रथम हिंसा करने वाले का ही विनाश करती है। दियासलाई दूसरों
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हेमेजर ज्योति * हेमेन्द्र ज्योति