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श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ
जितने वचन के प्रकार है, उतने ही नय है । इस तरह नय के अनंत भेद हो सकते है। तथापि उनका समाहार
और समझने की सरलता की दृष्टि से उन सब वचन पक्षों को अधिक से अधिक सात भेदों में विभाजित कर दिया है । ये सातों ही नय पूर्व-पूर्व की अपेक्षा उत्तरोत्तर विशुद्ध होते चले गये है। परस्पर विरूद्ध होते हुए भी नय एकत्र होते हैं और सम्यक्त्व भाव को प्राप्त करते है । किंतु जब ये नय परस्पर निरपेक्ष एवं एकांतवादी होकर स्वाग्रहशील हो जाते हैं, तब ये दुर्नय अर्थात नयाभास कहलाते है और जब ये नय सापेक्षवाद अर्थात स्याद्वाद से मुद्रित हो जाते है। तब ये नय सुनय कहलाते है। इस समस्त सुमिलित - सुनयों से 'स्याद्वाद' सिद्धांत बनता है।
इसी संदर्भ में स्पष्ट रूपेण यह ज्ञातव्य है कि नय 'ज्ञानांश' या प्रमाण भी कहा जाता है। अगाध, अपार महासागर की अथाह जलराशि में से एक चुल्लू पानी निकाल कर कोई पूछे वह सागर है क्या ? इस के उत्तर में यही कहा जायेगा कि चुल्लू में भरा जल, न तो समुद्र है और न ही समुद्र से भिन्न है, अपितु सागर का एक अंश है। यही स्थिति 'नय' के विषय में मानी जा सकती है।
जब नय समूह या कोई भी एक नय दूसरे नय की अपेक्षा रखता हुआ स्वयं की अभिव्यक्ति करता है तब वह प्रमाण की कोटि में आ जायेगा अर्थात वह प्रमाणांश होगा। अंतर केवल यही होता है कि दूसरे नयों से सापेक्षता का भाव जब किसी नय समूह में होता है, तब वह नय समूह यदि किसी वस्तु-विशेष की समग्रता का अभिव्यंजक हुआ तब तो उसको 'प्रमाण' ही मान लिया जायेगा। किंतु वह नय समूह, समूह होता हुआ भी एक नय की अपेक्षा से प्रमाणांश ही माना जायेगा। इसी तरह एक-एक नय भी दूसरे नयों की सापेक्षता के संदर्भ में प्रमाणांश कहे जाते है। आशय यह है कि अनेकांत द्वारा समग्र वस्तु स्वरूप का बोध होता है, तो नय के द्वारा वस्तु के अंश का बोध होता है। बाद में यही एक-एक अंश बोध जब पदार्थ के संपूर्ण अंशों के बोध तक पहुंच जाता है, यानी वस्तु के जब सारे अंशों को नय के द्वारा एक-एक करके जान लिया जाता है तब उन समस्त विभिन्न नयों द्वारा गृहीत बोध समूह को, पारस्परिक सापेक्षता के साथ जब तक एकरूपता प्राप्त नहीं हो पाती, तब तक वह सारा नय बोध, वस्तु अंश का बोधक होता है।
अनेकांत के अनुसार नय का उपयोग और महत्व इसलिये है कि वह वस्तु स्वरूप का सूक्ष्मांश भी ग्रहण करता है। अतएव जब भी किसी समग्र पदार्थ के खण्ड विशेष का परिबोध अंशत: उसका यथा तथ्य प्रतिपादन नितांत अपेक्षित हो, तब नय ही इस अपेक्षा की संपूर्ति करता है।
सप्तभंगी की परिकल्पना का अभिप्राय वस्तु मात्र में भिन्न-भिन्न परस्पर विरोधी धर्मों का सामंजस्य पूर्ण समन्वय सिद्ध करना रहा है। अति स्पष्ट है कि सप्तभंगी स्याद्वादवाद सिद्धांत तब उस सप्तभंगी किसी वस्तु विशेष के गुण पर्याय आदि को लक्ष्य करके उसके स्वद्रव्य, स्वक्षेत्र, स्वकाल और स्वभाव पर आधारित होगी। तब उसे नय सप्तभंगी कहा जायेगा।
यद्यपि सप्तभंगी के प्रयोग सूक्ष्मता से निरीक्षण किया जाए तो सहज ही ज्ञात हो जाता है इसके कुछ भंग तो पदार्थ के समग्र स्वरूप के विवेचन होने के कारण प्रमाण परक माने जा सकते है, तथा कुछ भंग आंशिक स्वरूप के विवेचक होने के कारण नय परक कहे जा सकते हैं। यथार्थतः तो सप्तभंगी में प्रमाण नय परक भेद नहीं किया जाना चाहिए क्योंकि इस भेद कल्पना से विषय वस्तु को समझने में सामान्यतः विरोध का प्रसंग बन सकता है।
पदार्थ स्वरूप यथार्थतः अनेकांतात्मक है। इसकी अनेक धर्मात्मकता का अभिप्राय होता है - धर्मों का समूह और समूह एक-एक इकाई की समुदित अवस्था को कहा जाता है। अर्थात अनेकांत का अर्थ होता है एकांतों का समूह। इस तरह अनेकांतात्मक पदार्थ स्वरूप को समस्त अंतों अर्थात धर्मों का समूह भी कहा जा सकता है।
ऐसा प्रतिपादन सिद्धांततः न करने के मूल में यह आशय है एक-एक एकांत जब अलग-अलग पड़ें हों यानी कि वे परस्पर विरपेक्षा रह रहे हों तब उन सारे एकांतों का जो समुदित रूप से कथन किया जायेगा। का संलक्ष्य अनेकांतवाद की यर्थाथता और सार्थकता सिद्ध करना रहा है।
प्रत्येक पदार्थ अनंत धर्मात्मकता के बिना सत्ता में नहीं रह सकता, जगत की यह वास्तविकता है। किंतु इस महत्वपूर्ण तथ्य को उजागर करने में सबसे बड़ी बाधा यह आती रही है कि उन अनंत धर्मों का निर्वचन इस तरह नहीं किया जा सकता है कि पदार्थ का समग्र स्वरूप एक साथ सुस्पष्ट हो सके। इसलिये इन सारे धर्मों का क्रमिक विवेचन में परस्पर समन्वय बनाये रखने की भावना से ओत-प्रोत मन बुद्धि ने स्याद्वाद एवं सप्तभंगी को जन्म दिया होगा यह समझना चाहिए।
हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति
45 Amrinatale
हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति