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श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ
दया धर्म का मूल है, पाप मूल अभिमान | एक अन्य आचार्य ने कहा है – दयानदी महातीरे सर्वे धर्मो द्रुमायिताः | अर्थात् धर्मों के जितने वृक्ष हैं, वे सब दया रूपी नदी के किनारे पर टिके हुए हैं ।
दूसरे के दुःख को देखकर यदि किसी के हृदय में दया उत्पन्न नहीं होती है तो समझ लेना चाहिये कि उस व्यक्ति के पास इन्सान का दिल नहीं है । वह इन्सान के रूप में शैतान है । इसी बात को ध्यान में रखकर उर्दू के एक शायर ने लिखा है -
वह आंख, आंख नहीं, वह दिल दिल नहीं,
जिसे किसी की मुसीबत नजर आती नहीं | यदि किसी के मन में दया-करुणा नहीं है तो कोई भी धर्म, उसके, कोई भी सत्कर्म पनप नहीं सकता | दया के सम्बन्ध में इतना ही कहना है कि प्रत्येक मनुष्य के हृदय में दया का सागर लहराता रहना चाहिये । 26. विनय
विनय को धर्म का मूल कहा गया है "विणय मूले धम्मे " जीवन रूपी भव्य महल का निर्माण विनय की नींव पर होता है । विनय को सब गुणों का अलंकार भी कहा गया है । विनय के सम्बन्ध में इसी बातको ध्यान में रखकर कहा गया है
नभो भूषा पूषा कमलवनभूषा मधुकरो | वचो भूषा सतयं वरविभवभूषा वितरणम् ||
मनोभूषा मैत्री मधुसमयभूषा मनसिजः ।
सदो भूषा सूक्तिः सकलगुणभूषा च विनय || इसका तात्पर्य यह है कि आकाश की शोभा सूर्य है, कमलवन की शोभा भवंरों से है, वचन की शोभा सत्यवाणी से है, धन की शोभा दान से है, मन की शोभा मैत्री से है, बसन्त की शोभा कामदेव से है, सभा की शोभा वाक्चातुर्य से है किंतु समस्त गुणों की शोभा विनय से है ।
विनय इतना महत्वपूर्ण है तो हमारे लिये यह आवश्यक है कि उसका अर्थ - परिभाषा को भी समझें । प्रवचन सारोद्धार में विनय की परिभाषा इस प्रकार की गई है -"विनयति क्लेश कारकमष्ट प्रकारं कर्म इति विनयः "| जो क्लेशकारी आठ कर्मों को दूर करता है, वह विनय है । स्थानांग सूत्र की टीका में कुछ उस प्रकार कहा गया है -
जम्हा विणयइ कम्मं अट्ठविह चाउरंत मोक्खाय |
तम्हा उ वयंति विऊ विणयं ति विलीणसंसारा || इसका तात्पर्य यह है कि विनय आठ कर्मों को दूर करता है । उससे चार गति के अन्त रूप मोक्ष की प्राप्ति होती है इसलिये सर्वज्ञ भगवान इसको विनय कहते हैं । व्रत, विद्या और वय में बड़ों के प्रति विनम्र आचरण करना विनय हैं :
व्रत-विद्या वयोऽधिकेषु नीचैराचरणं विनयः । विनय के सम्बन्ध में गांधी जी ने भी कहा कि विनय का अर्थ है अहंभाव का आत्यन्तिक क्षय । दूसरे शब्दों में यह भी कह सकते हैं कि सदैव सद्गुणों के समक्ष विनम्र बने रहना चाहिये । आप सभी यह बात भलीभांति जानते हैं कि जो वृक्ष फलों के भार से लदे रहते हैं वे सदैव झुके रहते हैं । इस सम्बन्ध में नीतिकार का कहना है -
नमन्ति फलिताः वृक्षाः नमन्ति बिबुधा नराः । शुष्कं काष्ठं च मूर्खश्च न नमन्ति त्रुटन्ति च ।।
हेमेन्द्र ज्योति * हेमेन्द्र ज्योति
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हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्द ज्योति
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