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श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ
के प्रतिष्ठित व्यक्ति भी सेठ के घर में चले गये । सबने स्थिति को देखकर मुखिया से तत्काल निर्णय करने को कहा। मुखिया ने सेठ को बुलाकर पूछा - तो उसने धीमी आवाज में सब बातें स्वीकार कर ली, लोगों ने भी कहा - हां मुखिया जी ! सगाई तो इसी लड़के के साथ हुई थी, मगर पिता की मृत्यु और धन चले जाने से इसका संबंध लड़की के पिता ने समाप्त कर दिया।" पंचो ने सेठकों डांटते हुए कहा - "इसके पिता की मृत्यु होने से तुम इसकी मांग मुखिया पुत्र को देने को तैयार हो गये? लो, इसके संरक्षक हम हैं और इस कन्या के साथ इसी का विवाह होगा।' तथा खूब धूमधाम से सेठ पुत्र का विवाह हुआ। जो दहेज मुखिया पुत्र को दिया जाने वाला था वह सब उसे दिया गया । समाज व अन्य समाज के लोगों ने मुखिया के न्याय की भूरि-भूरि प्रशंसा की ।" ___पंचों ने मिलकर मुखिया से कहा - "समाज में ऐसी व्यवस्था होनी चाहिये कि प्रत्येक समाज अपने ही समाज में विवाह सम्बन्ध करे, अपनी जाति के अतिरिक्त दूसरी जाति में विवाह आदि होने से मर्यादा भंग हो जाएगी तथा अनेक प्रकार के अन्याय होने लगेंगे ।" समाज के पंचों एवं मुखिया ने मिलकर ऐसा नियम बनाया कि चारों वर्ण अपने वर्ण में ही कन्या का सम्बन्ध करें । इस नियम का पालन किया गया ।
धर्मात्मा सेठ एक छोटे से नगर में एक सेठ रहता था । उस नगर के राजा ने उसे नगर सेठ की पदवी दे रखी थी ।
सेठ बड़ा दयालु था याचकगण उसके द्वार से कभी खाली हाथ नहीं लौटते थे । उसने दीन, अनाथ और पीड़ितों के लिये नगर में एक चिकित्सालय खुलवा दिया था, जहां गरीबों का निशुल्क उपचार किया जाता | रोगियों को रात्रि विश्राम हेतु चिकित्सालय के समीप ही धर्मशाला का निर्माण करवाया था । पीने के पानी की व्यवस्था उसने प्याऊ द्वारा की थी । जहां रोगियों के अतिरिक्त आने जाने वाले भी शुद्ध व सुगन्धित जल पीकर तृप्त होते थे ।
अपने देव, गुरु और धर्म के प्रति उसके हृदय में असीम आस्था थी । इतना धर्मात्मा और दयालु होने के उपरान्त भी वह सन्तान विहीन था । संतान प्राप्ति के लिये उसने मनोतियां भी मान रखी थी । फिर भी प्रभु की उस पर कृपा नहीं हो रही थी जिसके फलस्वरूप सेठ-सेठानी दुःखी रहते थे । सब सुख होते हुये भी वे सुखी नहीं थे।
सेठ-सेठानी को दिन-रात रह-रहकर यह चिन्ता सताती रहती कि हमारे पश्चात् हमारे कारोबार का क्या होगा? कौन इसे संभालेगा?
एक दिन सेठ निश्चय करके सघन वन में निकल गया, और ध्यान मग्न होकर अपने इष्टदेव से पुत्र प्राप्ति की प्रार्थना करने लगा । सेठ एकाग्रचित होकर ध्यान में बैठ गया । एक घण्टे के पश्चात् ज्यों ही उसने आंखें खोली, सामने एक वृक्ष के नीचे एक छोटे से शिशु को लेटा हुआ देखा । सेठ पहले तो आश्चर्य चकित हो गया । इतने में उसके कानों से आवाज टकरायी, भक्त ! तेरी भक्ति से प्रसन्न होकर तेरे दुःख को दूर किया है । इस शिशु को गोद में उठा ले । और अपने घर ले जाकर इसका प्रेम से पालन-पोषण कर ।।
सेठ ने उस बालक को गोद में ले लिया और मन ही मन यह संकल्प किया कि मैं चुपचाप इस बालक को घर में जाकर पत्नी को सौंप दूंगा, इसे अपने जन्म दिये पुत्र की तरह इसका पालन पोषण करने के लिये कहूंगा। जब यह कुछ बड़ा हो जाएगा तो इसे राजकुमारों की तरह समस्त शिक्षाएं दिलाऊँगा । जब विवाह योग्य हो जाएगा तो किसी योग्य कन्या के साथ इसका विवाह कर दूंगा । फिर सारा कारोबार उसे सौंपकर आत्म-कल्याण का मार्ग अंगीकार कर दोनों प्रभु भक्ति अर्थात् जिनेन्द्र भक्ति में लीन रहने लगेंगे । सेठ उस बालक को लेकर सीधा अपने घर पहुंचा और पत्नी को सौंपते हुये कहा-प्रिये ! लो, तुम्हारे लिये यह बालक लाया हूं, यह जिनेन्द्र प्रभु का दिया हुआ है, इसका पुत्रवत् पालन करना । सेठ ने अपना मनोरथ भी दोहरा दिया । सेठानी भी पति के मनोरथ से सहमत होकर उस बालक का पुत्रवत् पालन करने लगी। वह बालक भी स्वयं को सेठ पुत्र तथा सेठ-सेठानी को माता-पिता मानने लगा । वह लडका समझदार होकर जिनधर्म की शिक्षा प्राप्त करने लगा तो सेठ कभी, कभी उसके सामने अपने मनोरथ को दोहराता था । लड़का भी उनके प्रति कृतज्ञता प्रकट करता था ।
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