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श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ
कर्म अस्तित्व के मूलाधार : पूर्वजन्म और पुनर्जन्म
पुनर्जन्म को माने बिना वर्तमान जीवन की यथार्थ व्याख्या सम्भव नहीं
जीवन का जो स्वरूप वर्तमान में दिखाई पड़ रहा है, वह उतने ही तक सीमित नहीं हैं, अपितु उसका सम्बन्ध अनन्त भूतकाल और अनन्त भविष्य के साथ जुड़ा हुआ है। वर्तमान जीवन तो उस अनन्त श्रृखंला की एक कड़ी है। भारत के जितने भी आस्तिक दर्शन हैं, वे सब पुनर्जन्म और पूर्वजन्म की विशद चर्चा करते हैं। पुनर्जन्म को माने बिना वर्तमान जीवन की यथार्थ व्याख्या नहीं हो सकती। पुनर्जन्म और पूर्वजन्म को न माना जाए तो इस जन्म और पिछले जन्मों में किये हुए शुभ-अशुभ कर्मों के फल की व्याख्या भी नहीं हो सकती । प्रत्यक्षज्ञानियों और भारतीय मनीषियों द्वारा पुनर्जन्म की सिद्धि
प्रत्यक्ष ज्ञानियों ने तो पुनर्जन्म और पूर्वजन्म के विषय में स्पष्ट उद्घोषणा की है। उनको माने बिना न तो आत्मा का अविनाशित्व सिद्ध होता है और न ही संसारी जीवों के साथ कर्म का अनादित्व । भारतीय मनीषियों ने | तो हजारों वर्श पूर्व अपनी अन्तर्दृष्टि से इस तथ्य को जान लिया था और आगमों, वेदों, धर्मग्रन्थों, पुराणों, उपनिषदों, स्मृतियों आदि में इसका स्पष्ट रूप से प्रतिपादन भी कर दिया था ।
आचार्य देवेन्द्र मुनि म.सा.
वैदिक धर्म के मूर्धन्य ग्रन्थ गीता में स्थान-स्थान पर पुनर्जन्म के सिद्धान्त का प्ररूपण किया गया है। अर्जुन ने कर्मयोगी श्रीकृष्ण से पूछा - "देव! योगभ्रष्ट व्यक्ति की क्या स्थिति होती है ?" इसके उत्तर में श्रीकृष्ण कहते हैं - "वह योगभ्रष्ट साधक पवित्र और साधन-सम्पन्न मनुष्य के घर जन्म लेगा, अथवा बुद्धिमान योगियों के कुल में पैदा होगा।"
इसके अर्थ यह हुआ कि पिछले जन्म की विशेषताओं एवं संस्कारों की प्राप्ति दूसरे जन्म में होती है। जन्म के साथ दिखाई पड़ने वाली आकस्मिक विशेषताओं का कारण पूर्वजन्म के कर्म होते हैं। उसका प्रमाण गीता के अगले श्लोक में अंकित है - "वह अपने पूर्वजन्म के बौद्धिक संयोगों तथा संस्कारों को प्राप्त करके पुनः मोक्षसिद्धि के लिये प्रयत्न करता है।" दुष्कर्मों के फलस्वरूप अगले जन्म में प्राणी निम्नगति और योनि को पाता है, इसके लिए गीता कहती है-"निकृष्ट कर्म करनेवाले क्रूर, द्वेषी और दुष्ट नराधर्मों को निरन्तर आसुरी योनियों में फेंकता रहता है।"
जो लोग भौतिक शरीर की मृत्यु के साथ ही जीवन की इतिश्री समझ लेते हैं, उन्हें पौर्वात्य और पाश्चात्य दार्शनिकों, धर्मशास्त्रियों, स्मृतिकारों, आगमकारों और विचारकों ने तर्कों, प्रमाणों, युक्तियों, प्रयोगों और अनुभवों के आधार पर यह सिद्ध कर दिया कि पुनर्जन्म का सिद्धान्त काल्पनिक उड़ान नहीं है।
विभिन्न दर्शनों और धर्मग्रन्थों में कर्म और पुनर्जन्म का निरूपण
ऋग्वेद में कर्म और पुनर्जन्म का संकेत - 'ऋग्वेद' वैदिक साहित्य में सबसे प्राचीन धर्म शास्त्र माना जाता है। उसकी एक ऋचा में बताया गया है कि "मृत मनुष्य की आँख सूर्य के पास और आत्मा वायु के पास जाती है, तथा यह आत्मा अपने धर्म (अर्थात कर्म) के अनुसार पृथ्वी मे, स्वर्ग में, जल में और वनस्पति में जाती है। इस प्रकार कर्म और पुनर्जन्म के संबंध का सर्वाधिक प्राचीन संकेत प्राप्त होता है।"
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'उपनिषदों में कर्म और पुनर्जन्म का उल्लेख - कठोपनिषद् में नचिकेता के उद्गार है। जैसे अन्नकण पकते हैं और विनष्ट हो जाते हैं, फिर वे पुनः उत्पन्न होते हैं, वैसे ही मनुष्य भी जीता है, मरता है और लेता है।
पुनः जन्म
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