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श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ
वस्तु के गुणात्मक स्वरूप का समग्र बोध, क्रम की अपेक्षा नहीं रखता। जबकि पर्याय समूह का समग्र बोध, क्रम के अभाव में संभव नहीं हो पाता। इसलिए किसी पदार्थ के पर्याय स्वरूप का क्रमशः समग्र बोध जब किया जायेगा तब प्रत्येक पर्याय का भिन्न-भिन्न अवस्था में बोध होने के कारण समग्र पर्यायों के समग्र स्वरूप बोध को 'क्रम अनेकांत' नाम से जाना जायेगा, यह बात भी ध्यान में रखने योग्य है। इस तरह दो प्रकारों से अनेकांत के दो भेद माने जा सकते हैं। सम्यक् अनेकांत और मिथ्या अनेकांत, तथा क्रम अनेकांत और अक्रम अनेकांत अनेकांत के ये दो भेद सिद्ध करते हैं कि स्वयं अनेकांत भी परस्पर विरूद्ध धर्मों को स्वयं में आत्मसात किये हुए है। अतएव यह स्वयं भी अनेकांतात्मक सिद्ध हो जाता है। इसे प्रमाण और लय की विवक्षा के आधार पर अनेकांतात्मक सिद्ध किया गया है। इसी संदर्भ में एक महत्वपूर्ण प्रसंग का उल्लेख करना अप्रासंगिक नहीं होगा। कुछ अंधे व्यक्तियों द्वारा एक साथ मिलकर हाथी को जाने समझने के प्रयास का उदाहरण है। जिस तरह यह अंधे, हाथी की सूंड, कान, पूंछ और पेट आदि एक-एक अंग को पकड़कर, उन्हीं एक अंग को पकड़कर, उन्हीं एक-एक अंगों को 'हाथी' का समग्र स्वरूप मान लेते हैं और हाथी के स्वरूप के विषय में विवाद करते परस्पर लड़ बैठते हैं वही स्थिति, वस्तु स्वरूप में विद्यमान अनेकों धर्मों, गुणों और पर्यायों में से किसी एक को उस वस्तु का समग्र स्वरूप मानने पर बन जाती है और जिस तरह वे अंधे, अपने अपने द्वारा पकड़े गये, हाथी के एक-एक अंग को पूरा हाथी बतलाते हैं, उसी तरह वस्तु स्वरूप के किसी एक धर्म, एक गुण या एक पर्याय को, समग्र वस्तु स्वरूप जब कहा जायेगा, तब कौन किसे असत्य ठहरायेगा ? यह निश्चित नहीं हो सकता। वास्तविक स्थिति यह होती है कि वे सब के सब असत्य हैं। इसलिए वस्तु स्वरूप के किसी एक धर्म एक गुण और एक पर्याय को बतलाने वाले नय एक ही धर्म, गुण या पर्याय पर आग्रही होने के कारण एकांत कहे जाते हैं। एकांत का अर्थ ही होता है अनेक में से किसी एक का कथन करना। इस तरह के एकांत, संख्या की दृष्टि से चाहे अनेक हो जायें अनंत बनते जायें फिर भी अनेकांत संज्ञा को प्राप्त नहीं कर पायेंगें। तात्पर्य यह है कि पृथक-पृथक अंगों या अंशों के रूप में एक धर्म एक गुण या एक पर्याय की विवेचना करने वाले, एकांत, जब तक अलग-अलग पड़े रहते हैं यानि परस्पर निरपेक्ष बने रहते हैं, तब तक उसमें अनेकांतता नहीं आ पाती। किंतु जब वे सारे ही एकांत मिलकर परस्पर सापेक्ष बन जाते हैं, तब पदार्थ के समग्र स्वरूप के परिबोध बन जाते हैं। तब वस्तु तत्व के संपूर्ण स्वरूप के बोधक बन जाने के कारण ही उन्हें 'अनेकांत' की संज्ञा भी मिल जाती है।
समस्त पदार्थ - समस्त पदार्थ समूह के
इसी प्रधान आधार पर अनेकांत की यह विलक्षण सामर्थ्य स्पष्टतः प्रकट होती है - भिन्न-भिन्न धर्मों गुणों और पर्यायों के आधार पर जितने भी एकांत बन सकते हैं, वे सब के सब सापेक्षता अंगीकार कर लेने पर एक साथ अनेकांत में समा जाते हैं किंतु ये सारे एकांत यदि निरपेक्ष ही बने रहते हैं तो उनकी विशाल संख्या हो जाने पर भी, उनमें कभी भी अनेकांतता नहीं आ सकती। यह बात अलग है कि इन एकांतों के बिना अनेकांत की सत्ता ही सुरक्षित नहीं रह पाती है। इसलिए अनेकांत को भी हमें एकांत सापेक्ष मानना पड़ता है। यह बात दूसरी है कि परस्पर विरोधी धर्मों, गुणों और पर्यायों की व्याख्या करने वाले एकांतों में परस्पर सापेक्षता जगा देने की सामर्थ्य अनेकांत में ही पाई जाती है।
उक्त विवेचना से यह अति स्पष्ट है कि जगत की प्रत्येक वस्तु का नियामक 'अनेकांत' है। यदि पदार्थ में पाये जाने वाले धर्मों की परस्पर - विरूद्धता में सापेक्षता न बने । तो सुनिश्चित ही, प्रत्येक पदार्थ खंड-खंड होकर बिखर जाये। जब जगत की प्रत्येक वस्तु बिखरी होगी, तब जगत की सत्ता कैसे साकार हो सकेगी ? यह एक विचारणीय प्रश्न उठ खडा होता है। इस आधार पर हमें यह मानना पड़ता है कि अनेकांत, वस्तु समूह का केवल नियामक, नियंत्रक और प्रतिपादक ही नहीं है अपितु यह जगत का एक मात्र शासक है।
कोई भी शासक, अपने शक्ति प्रयोग के आधार पर शासन नहीं कर पाता। यह सर्वथा शाश्वत सत्य अनेकांत शासन पर भी यथार्थतः चरित्रार्थ होता है क्योंकि अनेकांत का महान अमात्य है- स्याद्वाद। स्याद्वाद न केवल अनेकांत की योजना का नीति निर्धारण करता है, अपितु उसकी नीतियों की स्पष्ट रूपेण व्याख्या भी करता है और उन नीतियों का कुशल क्रियान्वयन करता है सप्तभंगी सप्तभंगी का अपना महत्व है।
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