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श्री राष्टसंत शिरामीण अभिनंदन गंथ
नहीं दिखलाई नहीं पड़ता है, वह वस्तु कभी उपलब्ध नहीं हो पायेगी। जैसे आम के पेड़ में यदि आज बौर आया है तो वह वृक्ष सदा बौराया ही रहेगा। आज उसमें फल नहीं लगे हैं तो कभी भी फल नहीं लग पायेंगें। जिन में फल लगे हैं किन्तु वे हरे हैं तो वे हरे फल कभी पक नहीं पायेंगें। क्योंकि आज उनका अस्तित्व नहीं हैं इसलिए कभी भी उनका अस्तित्व नहीं हो पायेगा। अतएव यह अवश्य रूप से मानना पड़ेगा कि प्रत्येक पदार्थ अनेकांतात्मक है। अनेक धर्मों वाली वस्तुओं की परिबोध कराने वाला सिद्धांत अनेकांतवाद है। क्योंकि पदार्थ समूह, इन अनेक धर्मों, गुणों और पर्यायों आदि के बिना अस्तित्वहीन हो जायेगा। अचेतन वस्तु की ही तरह चेतन स्वरूप आत्मा भी अनेकांतमय है।
अनेकांत-सिद्धांत की मान्यता जैन दर्शन की ऐसी विलक्षण मान्यता है, जिसे जैन ही नहीं मानते अपितु अनेकांत की महत्ता की स्वीकृति अन्य दार्शनिकों ने भी की है। अन्य दार्शनिकों के इस अनेकांत समर्थक स्वीकृति विवेचन और जैन सम्मत अनेकांत का अति सूक्ष्म अध्ययन करने पर स्पष्टतः परिबोध होता है कि दोनों स्वीकृतियों में विशेष रूप से भेद दिखलाई पड़ता है। यह विभेद, मुख्य रूप से यह है कि अन्य दार्शनिकों के विवेचनों में अनेकांत की झलक भर मिलती है। जो यह स्पष्ट करती है कि उन्होंने अनेकांत की महत्ता को नहीं समझा। जबकि जैन दार्शनिकों ने इसकी महत्ता को केवल समझा ही नहीं अपितु उसकी तह में जाकर जो गंभीर रहस्य निकाला, उससे चेतन अचेतनात्मक जगत के यथार्थ पर पड़ा हुआ पर्दा सदा के लिए उठ गया।
पदार्थ तत्व के यथार्थ स्वरूप का परिज्ञान करना, सहज नहीं है, बड़ा ही जटिल है। यह अति जटिलता, इसलिए है कि प्रत्येक पदार्थ में, इतने अधिक धर्म है, गुण हैं, पर्याय है उनका पार करना असंभव सा है। जब तक किसी पदार्थ के इन सारे स्वरूपों का सम्यक् बोध नहीं कर लिया जायेगा, तब तक यह कहना सत्य नहीं होगा कि उस पदार्थ विशेष को सर्वात्मना जान लिया गया है। यही स्थिति प्रत्येक पदार्थ, हर वस्तु के साथ है। किसी पदार्थ के अपूर्ण ज्ञान के बल पर, कोई भी सर्वज्ञ नहीं बन सकता। इसलिए यह नितांत आवश्यक था कि कोई दर्शन ऐसी पद्धति विशेष को खोज निकाले, जिसके सहारे से, वस्तु मात्र के समग्र स्वरूप का सम्यक् बोध किया जा सके। अनेकांतवाद की संस्थापना से, दार्शनिक जगत की यही कमी जैन दार्शनिकों ने पूरी की है, इस अभाव की संपूर्ति की।
यह अनेकांत क्या है ? इसकी विवेचना, प्रायः प्रत्येक जैन दार्शनिक ने की है। जिसका सार यह है, वस्तु मात्र में सत् - असत्, नित्य-अनित्य, तत्-अतत् आदि अनंत परस्पर विरोधी धर्मों, गुणों, पर्यायों आदि का होना 'अनेकांत' है। यानी इस बात को स्वीकार करना कि जगत के प्रत्येक पदार्थ में, प्रत्येक समय, अनेक रूप विद्यमान हैं। इनकी संख्या अनंत भी हो सकती है। इन सारे स्वरूपों की सत्ता को, एक साथ, एक-एक वस्तु में स्वीकार करना 'अनेकांत' है। इस आधार पर यह कहना होगा कि - पदार्थ का अनंत धर्मात्मक स्वरूप 'अनेकांत' है। दूसरे शब्दों में इसे यों भी कहा जा सकता है कि अनंत धर्म, अनंत गुण, अनंत पर्याय आदि मिलकर, एक-एक वस्तु का जो स्वरूप बनाते हैं, वे सारे वस्तु स्वरूप 'अनेकांत' होंगें अर्थात परस्पर विरोधी धर्मों, गुणों और पर्यायों के सम्मिश्रण से, वस्तु का जो स्वरूप बनता है, वह अनेकांत' कहा जायेगा।
यहां यह ध्यान देने की बात है, पदार्थ-स्वरूप में, जिन अनंत धर्मों, गुणों और पर्यायों के होने की बात कही गई है वे धर्म, गुण, पर्याय आदि यथार्थ होने चाहिए। अर्थात उन्हीं धर्म, गुण, पर्याय आदि युक्ति से किसी वस्तु में सिद्ध होते हों, कोरे वाग विलास से परिकल्पित धर्म, गुण, पर्याय की आदि की दृष्टि से इस 'अनेकांत' को मिथ्या 'अनेकांत' कहा जायेगा।
पदार्थ में जो भी अनंत धर्म होते है, वे सब गुण और पर्याय रूप होते हैं। इनमें से गुण पदार्थ का सहभावी धर्म है, जबकि पर्यायें क्रमभावी धर्म हैं। इसलिए किसी वस्तु के गुण समूह को संलक्ष्य कर जब उसके समग्र स्वरूप का परिबोध किया जायेगा तब उस वस्तु के अनेक गुण युक्त स्वरूप को 'अक्रम अनेकांत' नाम से कहा जायेगा। क्योंकि गुण समूह का समग्र बोध उस वस्तु के स्वरूप बोध के साथ ही, समग्र रूप से, एक साथ हो जाता है। अर्थात
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