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श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ
सच्चे माने में जीवन जीना : जीवन का अर्थ है -
जीवन का महान कलाकार जर्मन कवि गेटे जीवन को पवित्रतम तत्व मानता था। एक बार गेटे बीमार पड़ा तो वह अपनी तमाम प्रवृतियां बंद करके शरीर की चिकित्सा करने लगा। इस पर एक आलोचक ने कहा – “क्यों कवि! तुम्हें भी शरीर का मोह जगा न? आत्मा के गीत गाना एक बात है और शरीर की आल-पंपाल छोड़ना दूसरी बात है। यह अब तुम्हें समझ में आ गया न ?"
कवि - "अर्थात तुम्हारे मत से शरीर की सार संभाल रखना अनुचित कार्य है यही न?" वह बोला “आत्मा की बातें करने वाले को शरीर के प्रपंच में नहीं पड़ना चाहिए।" ___कवि ने कहा – “यह प्रपंच नहीं है, अपितु आत्मा की और जीवन की पूजा है। इसका सर्वोत्तम उपयोग होना चाहिए। शरीर महत्वपूर्ण माध्यम है, जीवन पूजा का। इस कारण इसे स्वस्थ और सुदृढ़ रखना ही चाहिए।"
वह बोला - "यह तो समझ में आये ऐसा है।"
कवि - "शरीर स्वस्थ और सुदृढ़ होगा तो योग्य कार्य होगा। जीवित हों और जीवन की चेतना को प्रकट करने वाले सत्कार्य न करें तो जीवन और मरण में क्या अन्तर है ?"
हम देखते है कि मनुष्य जीवन को सार्थक करने के बजाय निरर्थक बातों और कार्यों में, दूसरों की निंदा, चुगली करने, कलह-क्लेश करने में समय, शक्ति और धन की बरबादी करते है। यह जीवन का प्रयोजन नहीं है। अत: समय, शक्ति और आत्म धन को व्यर्थ न खोकर जो इनका सदुपयोग करता है, वही सच्चे माने में जीवन जीता है। जीवन में बाह्य और आन्तरिक आय का संतुलन ही जीवन का अर्थ है :
केवल श्वासोच्छवास ले लेना ही जीवन का लक्षण नहीं है। इससे कुछ विशेष है - जीवन का सही अर्थ। मान लो, दो मित्र काफी अरसे बाद मिले। उनमें से एक धनाढ्य हो गया था, दूसरा निर्धन था। धनाढ्य मित्र ने पूछा"आय कैसी है कितनी है ?" गरीब मित्र ने कहा - "अंदर की आय अच्छी है, बाहर की आय साधारण है।" "अरे! यह क्या कहते हो ? आय तो आय है। इसमें बाहर की कैसी और अन्दर की कैसी ?" वह बोला – "क्यों नहीं? शरीर को टिकाने और जीवन को इस धरती पर चलाने के लिए जो साधन, सामग्री और सुविधाएं चाहिए, इन सबको प्राप्त करने के लिए काम में आये, वह बाह्य आय (आवक) कहलाती है। ये सब साधन सुविधाएं प्राप्त करने के बावजूद भी दूसरों को सुख पहुँचाने और दुखी व्यक्ति की समस्या हल करने से कोई भी परोपकार न करें तो लुहार की धौंकनी के समान उसका जीवन व्यर्थ है। अतएव यह सब बाह्य आय है। इसके विपरीत जो अन्तरात्मा को शांति और समाधि दे, मन को शांति प्रदान करे, आत्मा का उत्थान करे और बुद्धि को संतृप्त करे ऐसा जीवन पाना आंतरिक आय है। मेरे बाहर की आय तो अपार है, मगर आंतरिक आय कम है।" जीवन की सार्थकता का मापदंड:
अतः मानव जीवन को दुनियादारी से, सांसारिक आशाओं, आकांक्षाओं, लालसाओं, अस्मिताओं और उपलब्धियों से नहीं मापा जा सकता। जीवन के अंत में अपने पीछे कितना धन, साधन, संतान आदि छोड़कर गया? इस पर से भी जीवन की सार्थकता या जीवन के वास्तविक उद्देश्य का पता नहीं लगता। जीवन की सार्थकता का, सदुद्देश्य का पता लगता है, जीवन में मैत्री, प्रमोद, कारुण्य, और माध्यस्थ भावों द्वारा। आत्मावत् सर्व भूतेषु या विश्व मैत्री के भावों को क्रियांवित करके जीने से जीवन में सच्चे आनंद की उपलब्धि होना ही जीवन की सार्थकता का मापदंड है। उत्तम जीवन वहीं कहलाता है, जो जीवन प्रभु भक्ति में, परमात्मा या शुद्ध आत्मा के ध्यान में, स्व-भाव रमणता में व्यतीत हो, वहीं सफल जीवन है।
हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति 30
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