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श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ
यही कारण है कि देवों को भी दुर्लभ मनुष्य जीवन प्राप्त करके मनुष्य को यह विचार करने के लिए सभी महान पुरुष प्रेरित करते है कि तू यह विचार कर कि मनुष्य जीवन किस लिए मिला है ? क्या मनुष्य जीवन खाने-पीने, ऐशो आराम करने, और इन्द्रिय विषयों तथा पर पदार्थों का आसक्ति पूर्वक उपभोग करने के लिए ही मिला है, अथवा हिंसा, झूठ, चोरी, बेईमानी, व्यभिचार, अन्याय, अत्याचार, शोषण आदि पाप कर्म करके दुनिया को संत्रस्त करने और अपनी आत्मा को पतन की खाई में गिरा देने के लिए मिला है ? अथवा विवेक विचार पूर्वक मानवता के उत्तमोत्तम गुणों अथवा सम्यग्दर्शन आदि रत्नत्रय से आत्मा को सुसज्जित करने के लिए मानव जीवन मिला है। चार्वाक दर्शन में शरीर को ही जीवन माना गया :___भारतवर्ष में एक चार्वाक दर्शन हुआ है, जिसका दूसरा नाम लोकायतिक है। इसे नास्तिक दर्शन भी कहते है। वह आत्मा के पृथक अस्तित्व को न मान कर शरीर को ही सब कुछ मानता है। वह कहता है - शरीर ही जीव है, आत्मा है, उसे ही आत्मा मानना है तो भले ही मानो। चार्वाक की दृष्टि केवल शरीर पर ही है। वर्तमान कालिक शरीर ही सब कुछ है, उसी को सजावो, संवारो, इन्द्रिय सुखों का जी भरकर उपयोग करो। शरीर छूटने के बाद सब कुछ यहीं समाप्त हो जायेगा, आगे न तो कोई परलोक है, न स्वर्ग-नरक है, न ही कोई मोक्ष है। इसी आश्रय को लेकर उसने धृष्टता पूर्वक कहा
यावज्जीवेत् सुखं जीवेत, ऋणकृत्वा घृतं पिबेत् ।
भस्मी भूतस्य देहस्य, पुनरागमनं कुतः।। जब तक जीवो, सुख से जीवो, कर्ज करके भी घी पीओ। यानि खूब अच्छे पदार्थ खाओ पीयो और मौज करो, परलोक नाम की कोई भी चीज नहीं है। यह पंच भौतिक शरीर के छुटते ही यहीं भस्म हो जाता है, फिर न कहीं जाना है और न कहीं से आना है। मतलब यह है कि चार्वाक की दृष्टि में शरीर, इन्द्रियों और अंगोंपांग ही जीवन है। शरीर के सिवाय मानव जीवन कोई अलग वस्तु नहीं है। शरीर को जीवन मानकर उसने भोगवाद या केवल भौतिकवाद का ही पोषण किया। इस दृष्टि से जीवन का उसने मूल्य कुछ भी नहीं माना, न ही मूल्य वृद्धि के लिए उसने तप, संयम, अहिंसा आदि को माना। कतिपय विचारकों की दृष्टि में शरीर रूपी रथ ही जीवन है :
विश्व के कतिपय विचारक जिन्हें भौतिक सिद्धियों की प्राप्ति में ही ज्यादा रस है, वे सहसा कह देते हैं - जीवन का अर्थ है - शरीर रूपी रथ। यह कितना संकुचित अर्थ है जीवन का? वे शरीर को रथ मानकर जिन्दगी भर शरीर को सजाने और संवारने, पुष्ट करने, शरीर के लिए सारी सुख सुविधाएं जुटाने, शरीर को प्रतिक्षण आराम देने के लिए विविध भौतिक सुख साधनों को अपनाने को ही जीवन का उद्देश्य मानते है। इससे भी आगे बढ़कर शरीरार्थी व्यक्ति शरीर रूपी जीवन के लिए पद, सत्ता, प्रतिष्ठा या प्रशंसा पाने तथा लौकिक सुखाकांक्षा की दौड़ में जिन्दगी भर दौड धूप करता है। ऐसे विचारकों की दृष्टि में शरीर रूपी रथ से आगे जीवन का कोई अर्थ नहीं है, उनकी दृष्टि में शरीर रूपी रथ में बैठने वाले (आत्मा या जीव) के अस्तित्व का कोई भान ही नहीं है। यह जीवन का संकुचित अर्थ है। विषय सुखों में मस्त रहना ही जीवन का अर्थ :
जिन्हे खा पी कर मौज मस्ती में पड़े रहना था, उन्होंने मानव जीवन के अर्थ किये हैं - 1. जीवन यानी मृत्यु पर्यन्त तन मन की रंग लीला। 2. जीवन यानी सुख यानी सुख सुविधाओं में जीने का खुल्ला मैदान। अथवा जीवन का अर्थ है - सुख का
सरोवर अथवा जीवन एक स्वर्गीय प्रवास है। ऐसे लोग विषय सुखों का आनन्द लूटने में मस्त रहना ही जीवन का अर्थ समझते है।
हेगेन्द्र ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति 29 हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति
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