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श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ ।
मानव जीवन का मूल भूत लक्षण - दोष रहित जीवन
ऐसे वास्तविक जीवन का मूलभूत लक्षण क्या है ? यह जब किसी आचार्य से पूछा गया 'किं जीवनम् ? जीवन क्या है ? इस पर उन्होंने मानव जीवन के मूलभूत असाधारण गुणों को लक्ष्य में रखकर कहा – 'दोष विवर्जितं यत्' - जो दोषों से रहित हो, वहीं वास्तविक लक्षण है - मानव जीवन का। इसका तात्पर्य यह है कि मानव जीवन का लक्षण यह है - जिसमें क्रोध, मान, मद, माया, ठगी, छल, अहंकार, द्वेश, ईर्ष्या, लोभ, तुच्छ तीव्र स्वार्थ, भेद भाव, पक्षपात, वैर विरोध, अंधानुराग, तीव्र मोह, तीव्र आसक्ति आदि दोषों का दावानल न हो। दूसरे शब्दों में - पवित्र मानव जीवन वह है जिसमें ये मूलभूत दोष न हों। इस लक्षण के परिप्रेक्ष्य में यह कहा जा सकता है कि मूलभूत दोष रहित जीवन वह है - जिसमें सरलता, विनीतता, अमात्सर्य और जीवदया ये मूलभूत गुण हों। मानव जीवन का शुद्ध आंतरिक रूप भी यही है, जिसमें सरलता, क्षमा, मृदुता, मानवता, नैतिकता, समता, करुणता, सत्याता आदि गुण दूसरे प्राणियों से अधिक मात्रा में हों।
ऐसा जीवन एक महाप्रसाद है, एक उत्सव है
ऐसा मानव जीवन एक महाप्रसाद है। लोग मंदिरों में जाते है, वहां प्रसाद मिलता है। मानव को भी जीवन रूपी महाप्रसाद मिला है। इससे बढ़कर महाप्रसाद संसार में दूसरा कोई नहीं हो सकता है। दुनिया में जितनी चीजें हैं, उनका हर रूप में कुछ न कुछ मूल्य है, लेकिन मानव जीवन ही एक मात्र ऐसा है जिसका मूल्य केवल अच्छी तरह जीने में है।
याद रखें:- किसी भी वस्तु का मूल्य तभी तक है जब तक जीवन है। जीवन तभी तक सच्चे माने में जीवन है जब तक हम उददेश्य पूर्वक शुद्ध लक्ष्य की ओर गति - प्रगति करते हुए निर्दोष जीवन जीते है। इस लिए निर्दोष जीवन जीने के लिए हमें जीवन के मूल्य को शुद्ध धर्म के साथ जोड़कर जीना होगा, तभी हमारा जीवन एक उत्सव बनेगा, एक स्वर्ग बनेगा। जीवन का अलग अलग रूप से मूल्य समझने वाले तीन प्रकार के व्यक्ति:
यद्यपि मानव जीवन विश्व की सर्वश्रेश्ठ मूल पूंजी है, किन्तु ऐसी महामूल्य संपत्ति पाकर भी आलसी, अकर्मण्य, अंधविश्वासी, शंकालु एवं पराश्रित या परभाग्योपजीवी व्यक्ति इस मानव जीवन की मूल पूंजी की सुरक्षा न करके इसे दुर्व्यसनों में, फिजूल खर्ची में, अपनी शक्तियों की विषय वासनाओं में, कषाय वृद्धि में खो देता है। ऐसा विवेकहीन मंद बुद्धि व्यक्ति यौवन मद में आकर यह भूल जाता है कि मानव जीवन एक महोत्सव है। लोग मंदिरों आदि में जाकर उत्सव करवाते या मनाते हैं। मगर मानव जीवन से बढ़कर महान उत्सव दूसरा कोई नहीं हो सकता। साधारण आदमी प्रायः बाहर उत्सव इसलिए करवाता है कि उसने अपने जीवन को प्रायः पशुवत या नारकवत बना लिया है। दुर्व्यसनों तथा कुटेवों, बुरी आदतों एवं हिंसादि पापाचरणों में पड़कर उसने जीवन को नर्क बना लिया है। पूर्व पुण्य प्रबलता के कारण पुरस्कार में मिले हुए मानव जीवन को परमानंद, शांति और वात्सल्य के साथ स्वीकार करने और तदनुरूप जीने के बदले मनहूस अकर्मण्य और किंकतर्व्यमूढ़ बनकर इसकी उपेक्षा करके तथा घृणास्पद रूप से स्वीकार करके जीता है। दूसरा एक व्यक्ति इस प्रकार का है कि वह यह सोचता है - हमारे पास मानव जीवन रूपी मूल पूंजी, एक ऐसी संपत्ति है जिसे हम अपनी कह सकते हैं, क्योंकि जन्म हमारी इच्छा से नहीं हुआ और मृत्यु भी हमारी इच्छा से परे की चीज है। एक मात्र मानव जीवन ही हमारा है। उस पर ह अतएव पुरस्कार में मिली हुई इस मानव रूपी श्रेष्ठ मूल पूंजी को वह व्यर्थ कामों में खर्च नहीं करता, न्याय, नीति, मानवता और इमानदारी से जीवनयापन करने में जितना कमाता है, उतना वह खर्च कर देता है। फलतः मानव जीवन की मूल पूंजी उसके पास सुरक्षित रहती है ऐसा व्यक्ति जीवन मूल्यों को सुरक्षित रखता है।
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