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श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ
चार्वाक चैतन्य विशिष्ट शरीर को ही आत्मा मानता है। आत्मा का स्वतंत्र अस्तित्व नहीं है। बौद्ध प्रत्येक क्षण में ज्ञान, अनुभूति और संकल्पों को परिवर्तनशील संतान मानता है। जैन आत्मा को अजर, अमर, परिणामी, नित्य मानता है। आत्मा अनन्त ज्ञान दर्शन सुख शक्ति का स्वभाव वाली है।
कर्मवाद को सभी दर्शनों ने माना है। सामान्य रूप रेखा का पूर्व में संकेत किया जा चुका है इसलिये पुनरावृत्ति करने की आवश्यकता नहीं रह जाती है। यहां इतना स्वीकार करना पर्याप्त है कि उन्होंने कर्म के संबंध में विचार किया है। लेकिन जितना गंभीर और विस्तृत विवेचन जैन दर्शन में है उतना अन्यत्र उपलब्ध नहीं है।
अब परलोकवाद का विचार करते है। परलोक-पुनर्जन्म-जन्मांतर ये समानार्थक है कि मृत्यु के बाद आत्मा का दूसरा शरीर धारण करना। परलोकवाद कर्मवाद के सिद्धांत का फलित रूप है। वर्तमान में जिस रूप में हैं और उसकी क्या स्थिति होती है इसका उत्तर परलोकवाद से मिलता है। कर्मवाद यह तो कहता है कि शुभ कर्मों का फल शुभ और अशुभ कर्मों का फल अशुभ मिलता है। लेकिन यह तो संभव नहीं है कि सभी कर्मों का फल इसी जीवन में मिलें। जिससे कर्म फल भोगने के लिए दूसरा जन्म आवश्यक है।
चार्वाक दर्शन शरीर, प्राण या मन से भिन्न आत्मा जैसी नित्य वस्तु नहीं मानता है। अतः उसको पुनर्जन्म मान्य नहीं है। परन्तु आत्मा की अमरता में विश्वास करने वाले सभी दर्शनों का मत है कि शरीर के साथ आत्मा का नाश नहीं होता है और वर्तमान शरीर के नष्ट होने पर भी कृत कर्मों का फल भोगने के लिए आत्मा को दूसरा जन्म लेना पड़ता है। यह दूसरा जन्म धारण करना ही पुनर्जन्म है।
बौद्ध दर्शन क्षणिकवादी है। आत्मा को क्षणिक विज्ञानों की संतति मानता है। उसके मत से आत्मा क्षण-क्षण बदलती रहती है। किन्तु आत्मा की संतति निरन्तर प्रवहमान रहती है। इस मान्यता के अनुसार आत्मा का जन्मान्तर या पुनर्जन्म होता है। जैन दर्शन तो आत्मा को परिणामी, नित्य अजर अमर मानता है। इसलिये उसके मत में जन्मांतर पुनर्जन्म के लिये कोई विवाद नहीं है।
पुनर्जन्म की तरह सभी आस्तिक दर्शनों ने मोक्ष की स्थिति को स्वीकार किया है। सांख्य मोक्ष को प्रकृति और पुरुष का विवेक मानता है। विवेक अर्थात एक प्रकार का ज्ञान विशेष। मोक्ष पुरुष की स्वाभाविक अवस्था की प्राप्ति रूप है। योग मोक्ष को आत्मा का कैवल्य मानता है। कैवल्य आत्मा को प्रकृति के जाल से छूट जाने की अवस्था विशेष है। मोक्ष दशा में पुरूष सुख दुख से सर्वथा अतीत हो जाता है। सुख दुख प्रकृति के विकार बुद्धि की वृत्तियां है।
न्याय-वैशेषिक मोक्ष को आत्मा की उस अवस्था को मानते है जिसमें वह मन और शरीर से अत्यन्त विमुक्त हो सत्ता मात्र रह जाती है। चैतन्य आगंतुक धर्म है। शरीर और मन से संयोग होने पर आत्मा में चैतन्य का उदय होता है। मीमांसा मोक्ष को आत्मा की स्वाभाविक अवस्था की प्राप्ति मानता है। उसके सुख दुख का सर्वथा विनाश हो जाता है। आनन्द की अनुभूति नहीं होती है। ज्ञान शक्ति तो रहती है किन्तु ज्ञान नहीं रहता है।
अद्वैत वेदांत मोक्ष को जीवात्मा और ब्रह्म के एकीभाव की उपलब्धि मानता है। क्योंकि वास्तव में आत्मा ब्रह्म ही है और सत् चित्त आनन्द रूप है।
जैन दर्शन में आत्मा की स्वाभाविक अवस्था ही मोक्ष है। अनन्त ज्ञान दर्शन सुख शक्ति का प्रकट होना ही मोक्ष है। स्वभाव को स्वभाव रूप में और पर भाव को पर भाव में जानकर परभावों से सर्वथा मुक्त हो जाना ही आत्मा की मुक्त दशा है। बौद्ध दर्शन में आत्मा की मुक्त अवस्था को मोक्ष न कहकर निर्वाण कहा है। वहां निर्वाण का अर्थ सब गुणों के आत्यन्तिक उच्छेद की अवस्था किया है। उच्छेद दुख का होता है। आत्म संतति का नहीं। बौद्ध दर्शन में निर्वाण को विशुद्ध आनन्द की अवस्था भी माना जाता है।
हेमेन्द्र ज्योति * हेमेन्द्र ज्योति 11 हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति
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