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श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन था कर्म और कर्मफलरूप पुनर्जन्मादि का संयोग कराने वाला : अपूर्व
यज्ञादि का अनुष्ठान (कम) करने पर तुरन्त फल की निष्पत्ति नहीं होती। परन्तु कालान्तर में होती है। इस विषय में प्रश्न यह है कि कर्म के अभाव में कर्मफलोत्पादक कैसे बन सकता है ? मीमांसक इसका समाधान यों करते है। - अपूर्व द्वारा यह व्यवस्था बन सकती है। प्रत्येक कर्म में अपूर्व (पुण्य-पाप) को उत्पन्न करने की शक्ति होती है। अर्थात कर्म से अपूर्व उत्पन्न होता है और अपूर्व से उत्पन्न होता है फल। कर्म और कर्म फल को जोड़ने वाला अपूर्व ही है। इसीलिए शंकराचार्य अपूर्व को कर्म की सूक्ष्म उत्तरावस्था या फल की पूर्वावस्था मानते हैं। योगदर्शन में कर्म और पुनर्जन्म:
'योगदर्शन' व्यास भाष्य में पुनर्जन्म की सिद्धि करते हुए कहा गया है “नवजात शिशु को भयंकर पदार्थ को देखकर भय और त्रास उत्पन्न होता है, इस जन्म में तो उसके कोई संस्कार अभी तक पड़े ही नहीं, इसीलिए पूर्वजन्म के कर्मरूप संस्कारों का मानना आवश्यक है। इससे पूर्वजन्म का अस्तित्व सिद्ध होता है। पातंजल योगदर्शन में कहा गया है - "जीव जो कुछ प्रवृत्ति करता है, उसके संस्कार चित्त पर पड़ते हैं। इन संस्कारों को कर्म संस्कार, कर्माशय या केवल कर्म कहा जाता है। संस्कारों में संयम (धारणा, ध्यान और समाधि) करने से पूर्वजन्म का ज्ञान होता है।" यों पूर्व जन्मसिद्ध होने से पुनर्जन्म तो स्वतः सिद्ध हो जाता है। योगदर्शन का अभिमत है कि जो कर्म अदृष्टजन्य वेदनीय होते हैं, वे अपना फल इस जन्म में नहीं देते, उनका फल आगामी जन्म या जन्मों में मिलता है। नारकों और देवों के कर्म अदृष्टजन्म वेदनीय होते हैं। इस पर से भी पुनर्जन्म फलित होता है। जैनदर्शन में कर्म और पूर्वजन्म - पुनर्जन्म :-d
जैनदर्शन आत्मा की परिणामोनित्य और कथंचित् मूर्त कहकर उसे शुभाशुभ कर्मों का कर्ता भोक्ता मानता है। उसका मन्तव्य है कि अनादिकाल से आत्मा का प्रवाहरूप से कर्म के साथ संयोग होने से, वह अशुभ है। इस अशुभ दशा के कारण ही आत्मा विभिन्न शुभाशुभ गतियों और योनियों में भटकता रहता है। आत्मा (जीव) जो भी कर्म करता है, उसका फल उसे ही इस जन्म में या अगले जन्म या जन्मों में भोगना पड़ता है, क्योंकि बंधे हुए कर्म बिना फल दिये नष्ट नहीं होते। वे आत्मा का तब तक अनुसरण करते रहते हैं, जब तक अपना फल भोग न करा दें। महाभारत में पूर्वजन्म और पुनर्जन्म -
'महाभारत' में बताया गया है कि "किसी भी आत्मा के द्वारा किया हुआ पूर्वकृत कर्म निष्फल नहीं जाता, न ही वह उसी जन्म में समाप्त हो जाता है, किन्तु जिस प्रकार हजारों गायों में से बछड़ा अपनी माँ को जान लेता है, उसके पास पहुँच जाता है, उसी प्रकार पूर्वकृत कर्म भी अपने कर्त्ता का अनुगमन करके आगामी जन्म में उसके पास पहुँच जाता है।" और उस वर्तमान जन्म में किये हुए कर्म अपना फल देने के रूप में आगामी जन्म (पुनर्जन्म) में उसी आत्मा का अनुगमन करते हैं। इस प्रकार पूर्वजन्म और पुनर्जन्म का सिलसिला तब तक चलता है, जब तक वह आत्मा कर्मों का सर्वधा क्षय न कर डाले। मनुस्मृति से भी पुनर्जन्म की अस्तित्व सिद्धि :
मनुस्मृति में बताया गया है कि नव (सद्यः) जात शिशु में जो भय, हर्श, शोक, माता के स्तनपान, रूदन आदि की क्रियाएँ होती है, उनका इस जन्म में तो उसने बिल्कुल ही अनुभव नहीं किया। अतः मानना होगा कि ये सब क्रियाएँ उस शिशु के पूर्वजन्मकृत अभ्यास या अनुभव से ही सम्भव है। अतः उक्त पूर्वजन्मकृत अभ्यास की स्मृति से पुनर्जन्म की सिद्धि होती है। पुनर्जन्मवाद-खण्डन, एक जन्मवाद - मण्डन : दो वर्ग
पूर्वजन्म और पुनर्जन्म को न मानने वाले दो वर्ग मुख्य है- (1) एक है - चार्वाक आदि नास्तिक, जो आत्मा को (स्वतंत्र तत्व) ही नहीं मानते। वे त्रैकालिक चेतना को स्वीकार नहीं करते। उनका मन्तव्य है - चार या पाँच महाभूतों के विशिष्ट संयोग से शरीर में एक विशेष प्रकार की चेतना (शक्ति) उत्पन्न होती है। इस विशिष्ट प्रकार के संयोजन का विघटन होते ही वह चेतना शक्ति समाप्त हो जाती है। जब तक जीवन, तभी तक चेतना। जीवन
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