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श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ
असाधारण विशेषताएं देखी जाए तो पूर्वजन्म के उनके संग्रहित ज्ञान को, विशेषतः ज्ञानावरणीय कर्म के क्षयोपशम को ही कारण मानना पड़ेगा। भगवान् महावीर ने भी भगवती सूत्र में यही बताया है कि "ज्ञान इहभविक है, परभविक भी है और इस जन्म, पर जन्म तथा आगामी जन्मों में भी साथ जाने वाला है। अतः पूर्वजन्म या जन्मों में अर्जित किये हुए ज्ञान और ज्ञानावरणीय - कर्मक्षयोपशम के संस्कार उन-उन जीवों के साथ इस जन्म में भी साथ चले आते हैं। इस जन्म में उन बालकों में असमय में उदीयमान प्रतिभा-विलक्षण का समाधान पूर्वजन्म और पुनर्जन्म को माने बिना कथापि नहीं हो सकता।
पूर्वी जर्मनी का तीन वर्ष का विलक्षण प्रतिभा सम्पन्न बालक "होमेन केन" "मस्तिष्क विज्ञान” के शोधकर्ता विद्वानों के लिए आकर्षण केन्द्र रहा है। वह इतनी छोटी उम्र में जर्मन भाषा के ग्रन्थ पढ़ने लग गया था तथा गणित के सामान्य प्रश्नों को हल करने लगा था। उसने फ्रेंच भाषा भी अच्छी तरह सीख ली थी।
संसार के इतिहास में ऐसी जन्मजात प्रतिभा लेकर उत्पन्न हुए बालकों की संख्या बहुत बड़ी है। साइबरनैटिक्स विज्ञान का आविष्कारक "वीनर' अपनी विलक्षण प्रतिभा का परिचय 5 वर्ष की आयु से ही देने लगा था। उस समय भी उसका मस्तिष्क प्रौढ़ों जैसा विकसित था। वह युवा वैज्ञानिकों की पंक्ति में बैठकर उसी स्तर के विचार व्यक्त करता था। उसने 14 वर्ष की आयु में स्नातकोत्तर (एम.ए.) परीक्षा पास कर ली थी।
इसी तरह का एक बालक 'पास्काल' 15 वर्ष की आयु में एक प्रामाणिक ग्रन्थ लिख चुका था। मोजार्ता सात वर्ष की आयु में संगीताचार्य बन गया था। गेटे ने 9 वर्ष की आयु में यूनानी, लेटिन और जर्मन भाषाओं में कविता लिखना प्रारंभ कर दिया था। पूर्वजन्म पुनर्जन्म का स्वीकार : मानव जाति के लिए आध्यात्मिक उपहार
इस प्रकार के अनेकानेक प्रमाण आए दिन हमारे पढ़ने-देखने में आते है। इनसे पूर्वजन्म और पुनर्जन्म की मान्यता की पुष्टि होती है। मरणोत्तर जीवन के अस्तित्व का अस्वीकार करने वाले तथा नास्तिक लोगों के पास पूर्वजन्म एवं पुनर्जन्म को माने बिना इसका कोई समाधान नहीं है। बल्कि आज पुनर्जन्म और पूर्वजन्म का स्वीकार करना मानव जाति की अनिवार्य आवश्यकता है। इसके बिना परिवार, समाज एवं राष्ट्र में नैतिक-आध्यात्मिक मूल्यों को स्थिर नहीं किया जा सकता। अतः इस तथ्य सत्य को जानकर कि आत्मा का अस्तित्व शरीर त्याग के बाद भी बना रहेगा, वह जन्म जन्मांतर में संचित शुभ अशुभ कर्मों को साथ लेकर अगले जन्म में जाता है, उससे जुड़े हुए ज्ञानादि के संस्कार समूह भी जन्म जन्मांतर तक धारावाहिक रूप में चलते रहते हैं। अतः इस जन्म में आध यात्मिक विकास में पलभर भी प्रमाद न करके श्रेष्ठता की दिषा में सम्यग्दर्शन रत्नत्रय के पथ पर कदम बढ़ाना चाहिए। पुनर्जन्मवादी इस जीवन का उत्तम ढंग से निर्माण करते हैं जिससे उनका अगला जीवन भी उत्तरोत्तर आध यात्मिक विकास के सोपान पार करके उत्तमोत्तम बनता है। उत्तराध्ययन सूत्र के नमि प्रव्रज्या अध्ययन में इसी तथ्य को प्रस्तुत किया गया है। पुनर्जन्म में दृढविश्वासी नमि राजर्षि ने जब उत्तम जीवन निर्माण में बाधक राग-द्वेष-काम-क्रोधादि तथा तज्जनित अशुभ कर्ममल आदि अंतरंग शत्रुओं पर विजय प्राप्त कर ली, तब इन्द्र ने उनकी विभिन्न प्रकार से परीक्षा की, उसमें उत्तीर्ण होने पर प्रशंसात्मक स्वर में इन्द्र ने कहा- "भगवन! आप इस लोक में भी उत्तम हैं और आगामी अर्थात परलोक में भी उत्तम होगें और फिर कर्ममल से रहित होकर आप लोक के सर्वोत्तम स्थान सिद्धि (मुक्ति मोक्ष) को प्राप्त करेंगे।" पूर्वजन्म - पुनर्जन्म की मान्यता से आध्यात्मिक आदि अनेक लाभ
पूर्वजन्म और पुनर्जन्म की मान्यता का इससे बढ़कर सर्वोत्तम लाभ और क्या हो सकता है ? फिर भी इस आदर्शवादी आस्था से इहलौकिक जीवन में मनुष्यता, नैतिकता, सदाचारपरायणता, परमार्थवृत्ति, स्वाध्यायशीलता, व्यवहारकुशलता, प्रसन्नता, सात्विकता, निरहंकारिता, अन्तर्दृष्टि, दीर्घदर्षिता, भावनात्मक श्रेष्ठता, सूझबूझ, धैर्य, साहस, शौर्य, चारित्र-पराक्रम, प्रखरधारणाशक्ति, सहयोगवृत्ति आदि सैकड़ों मानवीय विशेषताएं उपलब्ध हो सकती है, जिनका आध्यात्मिक लाभ कम नहीं है तथा दीर्घायुश्कता, स्वस्थता, सुख शांति और सुव्यवस्था के रूप में व्यावहारिक और सामाजिक लाभ भी पुष्कल है। पारलौकिक जीवन में उसका मूल्य, महत्व और अधिक सिद्ध होता है। इस प्रकार चतुर्थ आक्षेप का समाधन हो जाता है।
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