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श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ
भारतीय दर्शनों की मान्यतायें
-कोंकण केसरी मुनि लेखेन्द्रशेखर विजय मानवीय मनीषा की सर्वाधिक महत्वपूर्ण उपलब्धि का नाम दर्शन है। सत्य का साक्षात्कार करना उसका उद्देश्य है और वह सत्य भी तथ्य पूर्ण हो, कपोल कल्पनाओं से अभिभूत न हो एवं अनुभूति की कसौटी पर परीक्षा किये जाने पर प्रमाणित सिद्ध हो।
यह तो निश्चित है कि समस्त प्राणधारियों में मानव का स्थान सर्वोपरि है। उसे महामानव बनने का अवसर प्राप्त है। जब कि अन्य प्राणधारी प्राप्त का भोग करने तक सीमित है। इसीलिए मानव सदैव यह विचार करता आया है कि मैं कौन हूँ? अतीत में मेरा रूप क्या था और भविष्य में क्या होगा? मेरा प्राप्तव्य क्या है ? दृश्यमान विश्व का क्या स्वरूप है और उसके साथ मेरा क्या संबंध है ? आदि आदि।
साहित्य इन जिज्ञासाओं का समाधान नहीं कर सकता है। वह तो विचारों के प्रकार को लिपिबद्ध करने का आधार है। जिससे यह ज्ञात होता है कि विचार प्रणालियों का रूप क्या रहा और क्या हो सकता है। किन्तु चिन्तन का क्षेत्र व्यापक है। व्यक्ति अपने चिन्तन द्वारा स्व से प्रारंभ कर विश्व के समग्र जड़-चेतन पदार्थों के मूल रूप को प्राप्त करने परखने का प्रयत्न करता है।
भारतीय साहित्य के दो प्रकार हैं - वैदिक और अवैदिक। वैदिक साहित्य के उपनिषद विभाग में चिन्तन का स्पष्ट रूप दिखाई देता है और अवैदिक साहित्य आगम और पिटक चिन्तन के कोष ही हैं। उनमें स्व से लेकर विश्व के मूल रूप और मौलिक उपादानों का स्वतंत्र रूप से वर्णन किया है। उनमें व्यक्ति के स्वतंत्र अस्तित्व का बोध कराया गया है कि वह नर से नारायण भी बन सकता है और नारक भी बन सकता है। वह अपनी प्रत्येक क्रिया का कर्त्ता है और क्रिया फल का भोक्ता है। जैसा करेगा वैसा भरेगा का स्पष्ट उदघोश किया गया है। भारतीय दर्शनों के सामान्य विचारणीय विषय :
उपर्युक्त भूमिका के आधार से यह कहा जा सकता है कि भारतीय दर्शनों के सामान्य रूप में विचारणीय बिन्दु चार हैं :- 1. आत्मवाद, 2. कर्मवाद, 3. पुनर्जन्मवाद, 4. मोक्षवाद।
यह तो स्पष्ट है कि विश्व जड़ और चेतन पदार्थों का आस्पद है। इनमें मुख्य चेतन है। चेतन न हो तो इस विश्व का मूल्यांकन नहीं किया जा सकता है। क्योंकि चेतन ज्ञाता, कर्त्ता, भोक्ता है और सदैव अपनी अभिव्यक्ति अहम् मैं सर्वनाम द्वारा करता है। इस अहम् शब्द के द्वारा जिस द्रव्य तत्व का बोध होता है उसके लिये सभी दार्शनिकों ने आत्मा शब्द का प्रयोग किया है। यह आत्मा ही चिन्तन की आद्य इकाई है। इसीलिये दर्शन के क्षेत्र में आत्मवाद को सर्वमान्य सिद्धान्त के रूप में स्वीकार किया गया है।
आत्मा एक नहीं अनेक है। मनुष्य पशु, पक्षी आदि योनियों तथा शरीरों में विद्यमान है। इन योनियों तथा शरीरों की प्राप्ति पूर्वजन्म एवं पुनर्जन्म माने बिना संभव नहीं है। पुनर्जन्म के अनेक प्रसंग समाचार पत्रों में प्रकाशित भी होते रहते है। अतः यह पुनर्जन्मवाद दर्शन का सामान्य सिद्धांत है।
इस पुनर्जन्म के सिद्धान्त के साथ मुक्ति के सिद्धान्त का संबंध जुड़ा हुआ है। सभी आत्मा के अस्तित्व में विश्वास करने वालों को मुक्ति अभीष्ट है। उपनिषदों में देवमान के प्रसंग में यह संकेत किया गया है कि वे पुनर्जन्म के प्रपंच से मुक्त होकर ब्रह्म में लीन अर्थात ब्रह्म रूप हो जाते है। यह ब्रह्म रूप होना ही मुक्ति या मोक्ष कहा है। मुक्ति मनुष्य की वह अपार्थिव अवस्था है जब वह शुद्ध ज्ञान प्राप्त कर ब्रह्मलोक को प्राप्त करता है और पुनर्जन्म के संबंध में कहा है कि यह उनके लिये है जो ज्ञानी नहीं है। वे सांसारिक कामनाओं से उपरत नहीं होने के कारण ब्रह्मरूपता को प्राप्त नहीं करते है।
हेमेन्द्र ज्योति* हेगेन्द्र ज्योति
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हेमेन्द्र ज्योति * हेमेन्द्र ज्योति ।
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