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श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन थ
ग्रंथ
वृहदारण्यक उपनिषद में स्पष्ट कहा है- "मृत्युकाल में आत्मा नेत्र, मस्तिष्क अथवा अन्य शरीर- प्रदेश में से उत्क्रमण करती है उस समय विद्या (ज्ञान), कर्म और पूर्वप्रज्ञा उस आत्मा का अनुसरण करती है इसी उपनिषद में कर्म का सरल और सारभूत उपदेश दिया गया है कि "जो आत्मा जैसा कर्म करता है, जैसा आचरण करता है। वैसा ही वह बनता है। सत्कर्म करता है तो अच्छा बनता है, पाप कर्म करने से पापी बनता है, पुण्य कर्म करने से पुण्यशाली बनता है मनुष्य जैसी इच्छा करता है, तदनुसार उसका संकल्प होता है और जैसा संकल्प करता है, तदनुसार उसका कर्म होता और जैसा कर्म करता है, तदनुसार वह (इस जन्म में या अगले जन्म में) बनता है।" इसी उपनिषद में एक स्थल पर कहा गया है जिस प्रकार तृण जलायुका मूल तृण के सिरे पर जाकर जब अन्य तृण को पकड़ लेती है, तब मूल तृण को छोड़ देती है, वैसे ही आत्मा वर्तमान शरीर के अन्त तक पहुँचने के पश्चात् अन्य आधार (शरीर) को पकड़ कर उसमें चली जाती है।" कठोपनिषद में भी बताया गया है कि "आत्माऐं अपने-अपने कर्म और श्रुत के अनुसार भिन्न-भिन्न योनियों में जन्म लेती है।"
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छान्दोग्य उपनिषद में भी कहा है कि जिसका आचरण रमणीय है, वह मरकर शुभ-योनि में जन्म लेता है, और जिसका आचरण दुष्ट होता है, वह कूकर, शूकर, चाण्डाल आदि अशुभ योनियों में जन्म लेता है कौषीतकी उपनिषद में कहा गया है कि 'आत्मा अपने कर्म और विद्या के अनुसार कीट पतंगा, मत्स्य, पक्षी, बाघ, सिंह, सर्प, मानव या अन्य किसी प्राणी के रूप में जन्म लेता है।"
भगवद्गीता में कर्म और पुनर्जन्म का संकेत :
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भगवद्गीता में कर्मानुसार पूर्वजन्म और पुनर्जन्म के अस्तित्व को सिद्ध करने वाले अनेक प्रमाण मिलते है। गीता में बताया है कि "आत्मा की इस देह में कौमार्य, युवा एवं वृद्धावस्था होती है, वैसे ही मरने के बाद अन्य देह की प्राप्ति होती है। उस विषय में धीर पुरुष मोहित नहीं होता। आगे कहा गया है कि जैसे मनुष्य पुराने वस्त्र जीर्ण हो जाने पर नये वस्त्र धारण करता है, वैसे ही जीवात्मा यह शरीर जीर्ण हो जाने पर पुराने शरीर को त्याग कर नये शरीर को पाता है। जिसने जन्म लिया है, उसकी मृत्यु निश्चित है, जो मर गया है, उसका पुनः जन्म होना भी निश्चित है अतः इस अपरिहार्य विषय में शोक करना उचित नहीं है। इसी प्रकार श्रीकृष्ण ने अर्जुन को सम्बोधित करते हुए कहा है-"हे अर्जुन! मेरे और तुम्हारे बहुत से जन्म व्यतीत हो चुके हैं, परन्तु हे परतप! मैं उन सब (जन्मों) को जानता हूँ, तुम नहीं जानते।" एक जगह गीता में कहा गया है-"जो ज्ञानवान् होता है, वही बहुत से जन्मों के अन्त में (अन्तिम जन्म में) मुझे प्राप्त करता है। हे अर्जुन! जिस काल में शरीर त्याग कर गये हुए योगीजन वापस न आने वाली गति को तथा वापस आने वाली गति को भी प्राप्त होते हैं, उस काल (मार्ग) को मैं कहूँगा।" पूर्वजन्म और पुनर्जन्म को सिद्ध करते हुए गीता में कहा है-"वे उस विशाल स्वर्गलोक का उपभोग कर पुण्य क्षीण होने पर पुनः मृत्युलोक में प्रवेश पाते हैं। इसी प्रकार तीन वेदों में कथित धर्म (सकाम कर्म) की शरण में आए हुए और काम भागों की कामना करने वाले पुरुष इसी प्रकार बार-बार विभिन्न लोगों (गतियों) में गमनागमन करते रहते हैं।"
बौद्ध-धर्म-दर्शन में कर्म और पुनर्जन्म
अनात्मवादी दर्शन होते हुए भी बौद्ध दर्शन ने कर्म और पुनर्जन्म के सिद्धान्त का समर्थन किया है। पालित्रिपिटक में बताया गया है- "कर्म से विपाक (कर्मफल) प्राप्त होता है, फिर विपाक (फल भोग) से कर्म समुद्रभूत होते हैं, कमसे पुनर्जन्म होता है इस प्रकार यह संसार (लोक) चलता ( प्रवृत्त होता रहता है। मज्झिमनिकाय में कहा गया हैकुशल (शुभ) कर्म सुगति का और अकुशल (अशुभ) कर्म दुर्गति का कारण होता है। बोधि प्राप्त करने के पश्चात तथागत बुद्ध को अपने पूर्वजन्मों का स्मरण हुआ था। एक बार उनके पैर में कांटा चुभ जाने पर उन्होंने अपने शिष्यों से कहा“भिक्षुओ! इस जन्म से इकानवे जन्म-पूर्व मेरी शक्ति (शस्त्र विशेष ) से एक पुरुष की हत्या हो गई थी। उसी कर्म के कारण मेरा पैर कांटे से बिध गया है।" इस प्रकार बोधि के पश्चात उन्होंने अपने-अपने कर्म से प्रेरित प्राणियों को विविध योनियों में गमनागमन (गति - आगति) करते हुए प्रत्यक्ष देखा था उन्हें यह ज्ञान हो गया था कि अमुक प्राणी के अपने कर्मानुसार किस योनि में जन्मेगा ? इस प्रकार का ज्ञान उनके लिए स्वसंवेध अनुभव था
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हेमेन्द्र ज्योति *मेन्द्र ज्योति