________________
श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ
मुक्ति अर्थात बंधन से मुक्त होना और पुनर्जन्म अर्थात बंधन के कारणों से संबद्ध रहना । संबद्ध होने के निमित्त का नाम कर्म है। इस संक्षेप का फलितार्थ यह हुआ कि मुक्ति और पुनर्जन्म का कारण कर्म वियोग और संयोग है। पुनर्जन्म, पुण्य-पाप, शुभ-अशुभ, शुक्ल-कृष्ण कर्म के फल रहित आत्मा की शुद्ध अवस्था की प्ररूपक है।
बौद्धिक विश्वास ऐसा है कि वेदविहित विधान से यज्ञ को संपूर्ण करने के पश्चात उस कर्म से एक ऐसे रहस्यमय गुण की प्राप्ति होती है जिसे अपूर्व या अदृष्ट कहते हैं। उसके द्वारा मनोवांछित फल की प्राप्ति हो जाती हैं। अवैदिकों की धारणा ऐसी है कि आत्मा की भावनानुसार ऐसी पौदगलिक वर्गणाओं का संयोग होता है जो आत्मा के मूल स्वभाव को प्रकट नहीं होने देता है और जन्म मरण के क्रम को गतिमान रखता है। इस प्रकार कर्मवाद का सिद्धान्त सभी भारतीय दर्शनों को मान्य है।
उपर्युक्त सामान्य रूपरेखा को सभी भारतीय दर्शनों ने अपने अपने चिन्तन का विषय बनाया है। चिन्तन की प्रणालियों के भिन्न-भिन्न होने से निर्णय में भिन्नता है। किन्तु यहां यह जान लेना चाहिये कि वैदिक मान्यतानुसार यह दृश्यमान जगत-विश्व ईश्वर द्वारा कृत माना गया है कि इस जगत के उत्पन्न होने के पूर्व न असत् था न सत् था परम् आकाश था। जो दृश्यमान आकाश से परे है। उस समय न मृत्यु थी न अमृत था । अर्थात जीवन की सत्ता और असत्ता नहीं थी । सृष्टि के पूर्व सर्वप्रथम कामना का उदय हुआ जो इस जगत की प्रारम्भिक बीज थी। इसी बीज का विकास यह विश्व है। लेकिन अवैदिक विचारधारा विश्व को अनादि अनन्त मानती है। वह ईश्वर या ब्रह्म आदि कृत नहीं मानती है। इसीलिये आत्मा आदि पूर्वोक्त चार को भारतीय दर्शनों का मूल सिद्धांत माना है। प्रस्तुत लेख में इन्हीं चार के लिये दार्शनिक मान्यताओं का संकेत किया जायेगा।
प्रमुख भारतीय दर्शन
मूल सैद्धान्तिक मान्यताओं पर दार्शनिक दृष्टिकोण प्रस्तुत करने से पूर्व यह जान लेना आवश्यक है कि वे कितनी है ? भारत की दार्शनिक परंपराओं की निश्चित संख्या नहीं बताई जा सकती है। इसलिये आचार्य सिद्धसेन को कहना पड़ा कि जितनी जितनी प्रणालियाँ हैं उतने ही चिन्तन के भेद हैं। फिर भी विद्वानों ने वर्णीकरण करने का प्रयास किया है। आगमों में क्रियावाद, अक्रियावाद, विनयवाद और अज्ञानवाद ये चार मूलभेद और उनके तीन सौ तिरसठ अवान्तर भेद माने हैं। आचार्य हरिभद्र आचार्य माधव तथा आचार्य शंकर ने अपने अपने दृष्टिकोण से दर्शनों का वर्गीकरण किया है। पाश्चात्य विद्वानों ने भी वर्गीकरण की जो पद्धति अपनायी वह भी अनेक प्रकार की है। आस्तिक और नास्तिक इन दोनों प्रकारों में भी वर्णीकरण किया है और आस्तिक दर्शन सांख्या, योग, न्याय, वैशिक, मीमांसा और वेदान्त तथा नास्तिक दर्शन चार्वाक, जैन, बौद्ध माने हैं। किन्तु वास्तव में भारतीय दर्शनों का वर्णीकरण दो प्रकारों में किया जा सकता है :- 1. वैदिक, 2. अवैदिक । वैदिक दर्शन अर्थात वेद, वेदांगों के समर्थक दर्शन। वे छह हैं जिनके नाम सांख्य आदि पूर्व में कहे गये हैं और चार्वाक, जैन, बौद्ध ये अवैदिक दर्शन हैं। इनके चिन्तन मनन का आधार वेद वेदांग से भिन्न स्वतंत्र तर्क पूर्ण दृष्टिकोण है। कुछ विद्वानों ने वैदिक दर्शनों की तरह अवैदिक दर्शन भी छः माने है। चार्वाक, जैन, सौत्रांतिक, वैभाशिक, योगाचार और माध्यमिक ।
भारतीय दर्शनों का मन्तव्य :
भारतीय दर्शनों (वैदिक अवैदिक दोनों) के सामान्य सिद्धांतों का नामोल्लेख पूर्व में किया गया है। इनके लिए दर्शनों का मन्तव्य इस प्रकार है :- न्याय और वैोषिक आत्मा को अविनश्वर और नित्य पदार्थ मानते हैं। इच्छा, द्वेष, प्रयत्न, सुख-दुख और ज्ञान को उसका गुण मानते है। आत्मा ज्ञाता, कर्त्ता और भोक्ता है। चैतन्य आत्मा का स्वरूप है। मीमांसा का मत भी यही है। आत्मा नित्य विभु है, ज्ञान आगंतुक धर्म है। मोक्ष में आत्मा चैतन्य गुणों से रहित रहती है। सांख्य ने पुरुष (आत्मा) को नित्य विभु और चैतन्य स्वरूप माना है। पुरुष अकर्ता और सुख-दुख की अनुभूति से रहित है। शुद्ध चैतन्य स्वरूप है। सांख्य अनेक पुरुषों को मानता है। ईश्वर को नहीं मानता है। वेदांत ने आत्मा को सत् चित्त आनन्द स्वरूप माना है। केवल एक ही (अद्वैत) आत्मा सत्य है।
हेमेन्द्र ज्योति हेमेन्द्र ज्योति 10
हेमेन्द्र ज्योति हेमेन्द्र ज्योति
www.jainelib