________________
श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ
राजकुमार दूर जंगलों में निकल गया और एक संत महात्मा की शरण में जा पहुंचा । राजकुमार अब उसी महात्मा के साथ कुटिया में रहता और रात्रि को अध्ययन करवाता तथा राजनीति के गूढ़ रहस्यों को संत से समझता।
राजकुमार को राज्य से बाहर निकालकर भी सिद्धार्थ को चैन न आया । उसके मन में बार-बार एक ही विचार आता कि किसी भी दिन, कभी भी आकर मेरे विरूद्ध षड्यंत्र रच सकता है । जागीरदार प्रशान्तकुमार का उत्तराधिकारी होने के कारण राज्य की प्रजा भी उसका साथ दे सकती है । मन में यह विचार आते ही सिद्धार्थ ने अपने विश्वस्थ साथी राजेन्द्र को बुलाया और कहा राजेन्द्रसिंह किसी भी तरह राजकुमार को ढूंढों और उसका मस्तक काटकर मेरे सामने प्रस्तुत करो । तभी हम बिना विघ्न के राज्य का सुख भोग सकेंगे । वह मेरे लिये कभी भी खतरा पैदा कर सकता है। धीरे-धीरे यह बात मंत्रियों सभासदों तथा राज्य की जनता के कानों तक भी पहुँच गई। क्योंकि ऐसी बात कभी छिपी नहीं रह सकती । सभी ने सिद्धार्थ की बुराई की यह बात सभी को ज्ञात थी कि राजकुमार निर्दोष है और उस पर लगाये गए आरोप निराधार हैं। सब धूर्त सिद्धार्थ की चाल मान रहे थे, मगर सत्य बात कहने का साहस कोई कर नहीं पा रहा था ।
राजेन्द्रसिंह, राजकुमार भूपेन्द्र की खोज में जंगलों में भटकने लगा महीने दो महीने की भाग-दौड़ के पश्चात् राजकुमार को उसने अन्तःपुर के जंगलों में खोज निकाला ।
राजकुमार के चेहरे की सरलता को देखकर राजेन्द्रसिंह असमंजस में पड़ गया। जैसे-तैसे उसने सिद्धार्थ का आदेश राजकुमार को सुनाया । तब विलंब क्यों कर रहे हो राजेन्द्रसिंह ? राजकुमार भूपेन्द्र ने कहा अपने स्वामी 1 के आदेश का शीघ्र पालन करो मैं तुम्हारे सामने खड़ा हूं। राजकुमार ने सहजभाव से कहा उसके चेहरे पर भय के कोई चिन्ह नहीं थे। राजकुमार का उत्तर सुनना था कि राजेन्द्रसिंह के हाथ से तलवार छूट कर गिर पड़ी। मन में हलचल मच गई । वह राजकुमार से लिपट गया और बोला- "मैं बुरा आदमी नहीं हूँ, राजकुमार ! पर क्या करूँ ? सिद्धार्थ के आदेश के आगे विवश हूँ उसका आदेश ही ऐसा है ।"
इतने में महात्मा भी वहाँ आ गया । सपूर्ण बात को समझने में विलंब न लगा । राजकुमार उसकी शरण में था अतः उसका हितैषी तो था ही। उसने सिद्धार्थ के नाम एक पत्र लिखा और राजेन्द्रसिंह को देते हुए बोला - आप इस पत्र को सिद्धार्थ तक पहुंचा दें ।
राजेन्द्रसिंह ने संत का पत्र अपने पास रख लिया और दोनों को आदर के साथ प्रणाम कर लौट गया ।
राजेन्द्रसिंह के पहुंचते ही सिद्धार्थ ने प्रश्न किया, "जो कार्य तुम्हें सौंपा गया था, क्या उसे तुमने पूर्ण किया" राजेन्द्रसिंह ने स्वीकृति में धीरे से गर्दन हिलाई और संत द्वारा दिया गया पत्र सिद्धार्थ के सामने रख दिया। उसमें लिखा था, इस धरा पर एक से एक दानी पराक्रमी और न्यायप्रिय शासक आए और चले गये । पर यह धरा किसी के साथ नहीं गई। उनके द्वारा किये गये जनहितैषी कर्मों की गूंज ही उनके साथ गई, लेकिन अब लगता है कि यह धरा निश्चित ही तुम्हारे साथ जाएगी । पर विचारों यह जाएगी क्या?
सिद्धार्थ ने पत्र पढ़ा तो आत्माग्लानि से भर उठा। संत की बातों का रहस्य वह समझ गया । वह जोर-जोर से रोने लगा और सिंहासन पर ही बेहोश हो गया। चेतना लौटी तो राजेन्द्रसिंह से कहा यह तुमने क्या किया राजेन्द्र ? अब मैं जागीरदार साहब प्रशान्तकुमार जी को क्या उत्तर दूंगा । क्षणिक सुख और वैभव ने मेरे आदर्शों को मिट्टी में मिला दिया। साहस धारण कर राजेन्द्रसिंह ने सिद्धार्थ को वास्तविकता से अवगत कराया, वह प्रसन्नता से झूम उठा । जैसे डूबते हुए को तिनके का सहारा मिल गया हो। उसने कहा - "जाओ राजकुमार को बुलाकर लाओ । राज्य का स्वामी तो वही है। साथ में महात्मा जी को लाना न भूलना ।"
राजकुमार को बड़े ठाट बाट से राजतिलक कर मंत्रोच्चार के साथ सिहासनारूढ़ करवाया । सिंहासन पर बैठने से पूर्व उसने अपने आश्रय दाता संत प्रवर के चरण स्पर्श कर आशीर्वाद प्राप्त किया। सिद्धार्थ भी महात्मा जी से अपनी गलती की बार-बार क्षमा मांगने लगा ।
राजकुमार से राजा बने भूपेन्द्र ने संत गुरु से थोड़े दिन उसके साथ रहने की प्रार्थना की। जिसे संत ने स्वीकार कर लिया ।
मेजर ज्योति ज्योति
72
हेमेन्द्र ज्योति हेमेन्द्र ज्योति
Use Only