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श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ।
द्रव्य पूजा का आराधक अधिकतम अच्युत नामक बारहवें देवलोक में जाता है तथा भाव-पूजा का आराधक अंतर्मुहूर्त में मोक्ष प्राप्त कर लेता है।
मोक्ष मार्ग के साधक को जिज्ञासु को, अपनी पूजा भावमय बनानी चाहिए। बिना भाव के तो सब व्यर्थ है। भाव पूजा तो सामग्रियों के कम रहने पर या कर्मकाण्ड न जानने पर भी मनुष्य का उद्धार कर देती है। फिर वीतराग भगवान की पूजा तो उच्चस्तरीय भावना, चारित्र, सम्यक् जीवन प्रणाली पर आधारित है।
समय के साथ-साथ, जीवन के बदलते मूल्य और प्रतिमानों के साथ-साथ मूर्ति पूजा, देव पूजा आदि का भी स्वरूप बदल गया है। भक्तगण मूर्ति मात्र को ही भगवान मानकर पूजा की औपचारिकता पूरी करते हैं। मूर्ति के साथ अपने इष्ट का व्यापक भाव, उनका गुणानुवाद, चिंतन-मनन तो विस्मृत जैसा होता जा रहा है। पूजा के नाम पर कर्मकाण्ड दिखाऊ आडम्बर साधना सामग्री आदि तो बहुत बढ़ गये हैं लेकिन उसकी मूल भावना तिरोहित होती चली जा रही है। परिणाम सामने है भारत देश में विभिन्न सम्प्रदायों के हजारों-लाखों मंदिर और करोड़ों में ही उनके मानने वाले, पूजने वाले फिर भी धर्म, अध्यात्म, चारित्र आदि के क्षेत्र में जो गिरावट आ रही है वह हमारी भावहीन पूजा प्रणाली की निरर्थकता का ही परिणाम है। पूजा के उपक्रम आज धर्म-भीरुताजन्य औपचारिकता मात्र बनकर रह गये हैं। कई लोग तो अपने आपको समाज में धार्मिक, भक्त के रूप में प्रतिष्ठित करने के लिए ही मूर्ति पूजा का आडम्बर ओढ़ते देखे गये हैं। कई लोग देखा-देखी ही इस ओर आगे बढ़ते हैं। कई भक्तगण खा-पीकर आराम से असमय ही पूजा का दिखावा करते हुए अपने धर्म की पालना समझ लेते हैं। यह सब अपने आपको भ्रान्त करने या दूसरों को दिखाने को प्रयत्न तो हो सकता है किंतु पूजा की मूल भावना से इनका कोई खास संबंध नहीं है।
अस्तुः हमें अपनी पूजा पद्धति में सुधार करके भावपूजा को प्रमुख स्थान देना चाहिए। इसके साथ ही दैनन्दिन जीवन की पवित्रता नियमितता और धर्मानुशासन की अनुपालना करनी आवश्यक है। मूर्ति-मंदिर-पूजा, पूजक इन सबके लिए एक व्यवस्थित आचार संहिता शास्त्रकारों ने निर्धारित की है। उसे समझकर आदर्श पूजा आराधना का अवलम्बन लेना चाहिए तभी हमारी पूजा की सार्थकता सिद्ध हो सकेगी।
दुनियां में निशिपलायन करके भी कुछ साधु आगमप्रज्ञ कहा कर अपनी प्रतिष्ठा को जमाये रखने के लिये अपनी कल्पित कलम के द्वारा पुस्तक, पैम्पलेट या लेखों में मीयांमिठू बनने की बहादुरी दिखाया करते हैं, पर दुनियां के लोगों ये जो बात जग-जाहिर होती है वह कभी छिपी नहीं रह सकती। अफसोस है कि इस प्रकार करने से क्या द्वितीय महाव्रत का भंग नहीं होता? होता ही है। फिर भी वे लोग आगम-प्रज्ञता का शींग लगाना ही पसंद करते हैं। वस्तुतः इसी का नाम अप्रशस्ता है। जन-मन-रंजन कारी प्रज्ञा को आत्मप्रगतिरोधक ही समझना चाहिये। जिस प्रज्ञा में उत्सूत्र, मायाचारी, असत्य भाषण भरा रहता है वह दुर्गति-प्रदायक है। अतः मियांमिळू बनने का प्रयत्न असलियत का प्रबोधक नहीं, किन्तु अधमता का द्योतक है।
श्रीमद् विजय राजेन्द्रसूरीश्वरजी म.सा.
हेमेन्द ज्योति* हेमेन्र ज्योति
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हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्ट ज्योति