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श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन था
राक्षस ने कहा - "मुझे मूर्ख समझते हो? एक बार छोड देने पर तो पुनः तुम्हारी छाया भी मुझे कभी दृष्टिगोचर न होगी ।"
"मैं क्षत्रिय पुत्र हूँ । कभी वचन भंग नहीं कर सकता । चाहो तो एक बार परीक्षा करके देख लो ।"
उस राक्षस को राजकुमार के दृढ़ वचन सुनकर आश्चर्य हुआ और उसने सोचा क्या हानि है? एक बार इसकी परीक्षा ही कर लूं । शायद यह लौटकर नहीं भी आया तो मेरा क्या नुकसान हो जाएगा । इस वन में लोग भूले-भटके आते ही रहते हैं । एक के बदले चार को मृत्यु के घाट उतार दूंगा । यह विचार कर उसने राजकुमार को अपना कार्य करके लौट आने तक के लिये जाने दिया ।
कुछ दिन पश्चात् राक्षस ने देखा कि वही राजकुमार उसे ढूढता हुआ उसके सामने आ खड़ा हुआ है । साथ ही राक्षस ने देखा कि राजकुमार का चेहरा उस दिन की अपेक्षा आज अधिक तेजोमय एवं प्रसन्न है । और उस पर अपार तृप्ति तथा संतुष्टि के चिन्ह दृष्टिगोचर हो रहे हैं । आश्चर्य के साथ उसने पूछा- राजकुमार ! मुझे तुम्हारे वापस आने की तनिक भी आशा न थी । क्या तुम्हें मृत्यु का भय नहीं है । मैं तो सदा मनुष्यों को मृत्यु के समय रोते-चीखते ही देखता हूँ । ___राजकुमार ने अपनी उसी प्रसन्नता तथा शांतिपूर्ण स्निग्धता से कहा - "बन्धु ! मैं मृत्यु से नहीं डरता, क्योंकि अपने अब तक के जीवन में मैंने कोई भी बुरा काम नहीं किया है, जिसके फलस्वरूप मरने पर परलोक में किसी प्रकार का कष्ट उठाना पड़े । मेरा अब तक का पूरा जीवन संयम एवं सदाचार पूर्वक व्यतीत हुआ है। ऐसी स्थिति में भला मरने से मैं क्यों डरूंगा? मृत्यु का भय तो उन्हीं लोगों को होता है जो पाप पुण्य और परलोक में विश्वास न रखने के कारण जीवन में सदा पापाचरण करते हैं तथा क्रूरता के कारण भयंकर से भयंकर कृत्य करने में भी पीछे नहीं हटते । फल यही होता है कि उन मनुष्यों को मरते समय अपने पापों के लिये पश्चाताप तो होता ही है । साथ ही यह भय बना रहता है कि जीवन भर किये हुए पापों के कारण परलोक में मुझे न जाने कैसे घोर कष्ट भोगने पड़ेंगे?
राक्षस ने जब राजकुमार की बातें सुनी तो उसकी आंखें खुल गई और उसे ज्ञात होने लगा कि मैंने तो न जाने कितने लोगों के प्राण लिये हैं तथा असंख्य पाप संचय कर लिये हैं । पर अब भी यदि नहीं चेता तो पुनः मेरी परलोक में क्या दशा होंगी । यह विचार आते ही उसने राजकुमार को अनेकानेक धन्यवाद देते हुये उसे छोड़ दिया, साथ ही अपने जीवन को भी बदल डाला और किये हुये पापों के लिये भी घोर पश्चाताप करते हुये तप एवं त्याग-मय-जीवन व्यतीत करना शुरूकर दिया ।
साधु की चार शिक्षाएं ग्रीष्मऋतु और वैसाख–जेठ का महीना, ऊपर से सूर्य देवता की प्रखर किरणें ऋतु को और भी भयानक बनाने का प्रयत्न कर रही थी । पक्षीगण चहचहाते हुये समूह में गर्मी से निजात पाने के लिये अपने नीड़ों में जाकर विश्राम कर रहे थे।
सूर्य धीरे-धीरे पश्चिम दिशा की ओर सरक रहा था पर अभी भी उमस कम नहीं हुई थी । थोड़ा विश्राम करने के पश्चात् एक सन्त एकाग्रता के साथ मंथर गति से अपनी मंजिल की ओर चले जा रहे थे । साधु प्रकाण्ड विद्वान थे । उनके अमृत तुल्य उपदेश का श्रोताओं पर आश्चर्य जनक प्रभाव पड़ता था ।
मार्ग में थोड़ी दूरी पर भीतर की ओर चोरों का सरदार अपने साथियों के साथ रहता था । जेठ का महीना जाने की तैयारी कर रहा था और आषाढ़ मास आने को उतावला हो रहा था । इतने में आकाश में काली-काली घटाएं उमड़-उमड़कर आने लगी । और गर्जन करके वरसने लगी । संत ने आगे बढ़ना उचित न समझ कर जहाँ चोरों का सरदार निवास करता था उस स्थान के निकट पहुंचे ही थे कि इतने में दो चार चोर आये और संत को
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