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श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ
"तुम्हें कैसे मालूम हुआ ?" पिता ने पूछा । "पास के मील के पत्थर पर नौ का अंक लिखा हुआ है, पिता जी ।"
बालक का उत्तर सुनकर व उसकी कुशाग्र बुद्धि देख पिता हर्ष विभोर हो गया । बालक ललित ने पिताजी के साथ चलते-चलते अंग्रेजी के अंकों का ज्ञान कर लिया पुत्र की तीव्र बुद्धि के कारण पिता उसे लेकर वापिस गांव को लौट पड़े और संकल्प किया - "मैं एक समय भोजन करूंगा, सारे घर को आधे पेट रखूगा, पर ललित को शाला अवश्य भेजूंगा ।" बस यही संकल्प बालक ललित की उन्नति का आधार बन गया ।
घर आकर पिता ने उसे गांव की पाठशाला में प्रवेश करा दिया । बालक खूब मनोयोग पूर्वक अध्ययन करने लगा। पुस्तकों के सहारे उसने उच्चतम ज्ञान प्राप्त कर लिया। गांव की पाठशाला में वह सर्वोत्तम छात्र निकला । शिक्षक उससे सन्तुष्ट रहते और उसकी प्रशंसा किया करते थे । गांव के स्कूल की पढ़ाई समाप्त होने के पश्चात्
आगे पढ़ाना पिता के लिये असंभव था । अतः इंकार करना पड़ा । इस पर ललित ने पिता से विनती की कि उसे विद्यालय में भर्ती करा दें, शुल्क और पढाई का व्यय वह स्वयं परिश्रम करके चला लेगा । वह नगर में स्वयं काम की तलाश कर लेगा पिता ने उसे बम्बई के एक संस्कृत विद्यालय में भर्ती करा दिया । महाविद्यालय में उसकी लगन सेवा भावना, विनम्रता ने शिक्षकों को इतना प्रभावित कर दिया कि ललितप्रसाद को शुल्क मुक्त कर दिया । पुस्तकों के लिये वह अपने सहपाठियों को साझीदार हो गया था। अपने पुरुषार्थ और प्रबन्ध से उत्तरोत्तर वह अपनी योग्यता बढ़ाता गया । लगातार प्रगति करता गया । उन्नीस साल की आयु तक पहुंचते-पहुंचते उसने व्याकरण, साहित्य अलंकार, स्मृति तथा वेदान्त शास्त्रों में अगाध पांडित्य प्राप्त क लिया। वह गांव का बालक महान विद्वान बन गया।
उसकी असंदिग्ध विद्वता तथा धर्मसंस्कारों से युक्त उच्च आचरण से प्रभावित होकर विद्वानों की सभा ने उसे मान पत्र देकर सम्मानित किया और उसके मूल्यांकन में अनुरोध पूर्वक बम्बई के एक महाविद्यालय में संस्कृत विषय का प्राध्यापक नियुक्त किया गया । शिक्षा के वास्तविक उद्देश्य को ऐसे ही दृढ़ निश्चयी व्यक्ति प्राप्त कर सकते हैं ।
कुसंगति का प्रभाव किसी नगर में एक सेठ रहता था । वह करोड़ों की सम्पत्ति का स्वामी था । स्वभाव से सरल, दयालु, करुणाशील और दीन-दुःखी प्राणियों के प्रति सहानुभूति रखने वाला था । आवश्यकता पड़ने पर धन के द्वारा उनकी सहायता भी करता था ।
वह धर्माचार्यों के प्रति असीम श्रद्धा भक्ति रखता था । वह धर्म को हृदय में धारण किये रहता था । व्यापार में भी उसकी प्रमाणिकता प्रसिद्ध थी । वह अपने ग्राहकों के साथ सद्व्यवहार करता था। इसी कारण उसकी दुकान पर सदा ग्राहकों की भीड़ लगी रहती थी ।
सेठ की पत्नी ने विवाह के पश्चात् एक पुत्र रत्न को जन्म दिया था । एक मात्र पुत्र होने के कारण वह लाड़ प्यार में पलने लगा | इकलौता पुत्र होने तथा लाड़ प्यार में पलने के कारण बड़ा होकर आवारा लड़कों की कुसंगति में पड़ गया और धीरे-धीरे उसने सातों कुव्यसनों को गले लगा लिया । सेठ अपने पुत्र की विगड़ती दशा से व्यथित होकर उसे दिन-रात समझाया करता पर पिता की शिक्षा से ओतप्रोत बातों का कोई प्रभाव नहीं होता ।
सेठ बड़ा दुःखी रहता था । वह दिन-रात सोचता रहता कि मेरे बाप-दादा की प्रतिष्ठा, खानदान की साख को मैं बनाये रख रहा हूँ । पर यह बेटा जमी जमायी इज्जत को मटियामेट कर रहा है । यही हाल रहा तो वह दिन दूर नहीं जो बड़ा परिश्रम करके कमाई गई दौलत बरबाद कर देगा ।
हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति
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हेमेन्द्र ज्योति * हेमेन्द ज्योति
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