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श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ
"मेरी बहिन और मेरी धर्मपत्नी है ।"
"जाओ बेटा ! अति शीघ्र सभी को यहां ले आओ । डाकू का जंगली जीवन व्यतीत करना तुम्हारे जैसे शूरवीर को शोभा नहीं देता ।"
सरदार बहिन और पत्नी को ले आया । वह सरकारी काम करते हुए जीवन व्यतीत करने लगा । अपनी कार्य शैली के कारण थोड़े दिन में ही लोकप्रियता प्राप्त करली और प्रजा भी गुणगान करने लगी।
साधु द्वारा दी गई तीसरी शिक्षा पर सरदार को असीम श्रद्धा हो गई । वह सन्त के आने की प्रतीक्षा करने लगा ।
राजा की मृत्यु के पश्चात् बह राजा बनाया गया । जनता पूर्व की तरह सुख से जीवन व्यतीत करने लगी। उसने राज्य में सर्वत्र हिंसा बन्द करवा दी और प्रत्येक जीव को अभय कर दिया ।
एक बार वह बीमार हुआ, किसी अनाड़ी वैद्य ने सलाह दी कि राजा को कौए का माँस खिलाने पर बीमारी मिट जाएगी। पर राजा ने जनता के दबाव के बावजूद भी इस उपचार को स्वीकार नहीं किया । अपनी प्रतिज्ञा पर दृढ़ रहते हुए साधु की चौथी शिक्षा का दृढ़ता से पालन किया । बीमारी बढती गई, खूब उपचार किया, अन्त में मृत्यु को प्राप्त हुआ । जनता ने रोते हुये दुःखी हृदय से राजा का मृत शरीर अग्नि देव को समर्पित कर दिया ।
३ परिश्रम का फल ललित के पिता तीन-चार रुपये मासिक वेतन पर एक कपड़ा मील में चौकीदारी करते थे । आर्थिक, सामाजिक चिन्ताओं से भरा हुआ जीवन था । बमुश्किल भर पेट भोजन मिल पाता था । कपड़े पहनने को मिल गये तो भाग्य समझो, नहीं तो फटे वस्त्रों में ही दिन व्यतीत करना पड़ते थे । जूते, टोपी की बात तो स्वप्न के समान थी । बालक ललित धीरे- धीरे उस दमघोट वातावरण में बड़ा होने लगा । निर्धनता के कारण पिता ललित को शिक्षित करने की बात ही कैसे सोच सकते थे । इच्छा अवश्य होती थी कि मेरा पुत्र भी पढ़ लिखकर योग्य, धर्मात्मा, संस्कारी और समाज में प्रतिष्ठित विद्वान बने । परन्तु आर्थिक विवशता थी । उनका पुत्र पुस्तकों, वस्त्रों का व्यय और फिर चाय पानी का तथा धनवानों के बच्चों की भांति जेब खर्च मांगेगा तो कहां से लाऊँगा? यही चिन्ता पिता को थी । जब कभी ललित अपने पिता से पढ़ने-लिखने को कहता तो पिता की आंखें डबडबा आती । केवल इतना उत्साहप्रद वाक्य अवश्य कहते - "बेटा ! तेरा मन ज्ञान पाने को ललचाता है । ये बड़प्पन के लक्षण हैं । भगवान चाहेगा तो तब यह सब होगा ।
पिता की विवशता भरी बातें सुनकर भी ललित के मन में पढ़ लिखकर विद्वान बनने, परोपकार के कार्य करने की गुप्त अभिलाषा बनी हुई थी । वह उपयुक्त अवसर प्रतीक्षा में था । लगन के साथ ही उसमें शिष्टता, विनयशीलता आदि गुण कूट-कूट कर भरे थे । सबसे मृदुभाषण और कोमल व्यवहार ने उसके अनेक मित्र बना दिये । उसने ऐसे सज्जन छात्रों से मित्रता की जो अवकाश के समय अपनी पुस्तकें उसे पढ़ने देते थे । यही नहीं जो बड़ी-बड़ी शुल्क देकर विद्यालय में अध्ययन कर आते थे, वे इस दीन बालक को भी कुछ-कुछ पढ़ा देते थे । जब दूसरे धनवानों के बालक खेलते तो यह नगर पालिका के लेम्प के धीमे प्रकाश में पढ़ा करता । किसी ने दया करके पेन्सिल दे दी तो सड़क पर पड़े हुए कागज के रद्दी टुकड़ों पर लिख-लिख अक्षर सीखने लगा । उसे पाठय-पुस्तक के कई पाठ और कहानियां कण्ठस्थ हो गई।"
बालक ललित की तेज बुद्धि, कठोर श्रम और लगन देखकर उसके गरीब पिता ने अधिक कमाई के लिये एक योजना बनाई । वह पुत्र को लेकर पास के बड़े नगर बम्बई के लिये पैदल चल दिया । मार्ग में एक जगह विश्राम लेने के लिये रूके तो पिता ने कहा - "न जाने हम कितनी दूर चलकर आये हैं ।” बालक ने तत्काल कहा - "नौ मील, पिताजी।"
हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति 62
हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति
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