________________
श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ
लोभ का परिणाम
|
एक राज्य के राजा का नाम कनकप्रिय था । असंयम के कारण वह अक्सर बीमार रहता था । उसकी लालसा कभी भी शान्त न होती थी। संपदा और विलास में तो लगी रहती थी सोना उसे बहुत प्रिय था जब वह सिहासनारूढ़ हुआ तब उसके मन में सम्पूर्ण विश्व का सोना समेट लेने की एक अतृप्त लालसा जागी । लालसा पूर्ण करने के लिये वह अन्याय करने लगा, जुल्म ढाने लगा । क्या धनवान, क्या गरीब सब उसके अत्याचार से त्राहिमाम त्राहिमाम करने लगे। चारों ओर हाहाकार मच गया। व्यापार ठप्प हो गया, खेत सूखने लगे । कनकप्रिय पर स्वर्ण का भूत सवार था । उसने स्वर्ण के लिये एक विशिष्ट कक्ष बनवाया, सुदृढ़ अलमारियां रखी और नित्य देखने लगा कि कमरा कितना भरा है, खाली स्थान कैसे भरा जाय। इसकी चिन्ता उसे सताने लगी । वह येनकेन प्रकारेण सोना एकत्र करने में लग गया ।
सोने के लिये वह जनता पर अत्याचार करने लगा कि कोई भी उसका मुँह देखना पसन्द नहीं करता था । जो भी उसे देखता उसके मुँह से यही निकलता कि तेरा सर्वनाश हो, तू निःसन्तान हो कांटों की सेज पर तेरे प्राण निकले। इस तरह स्वर्ण जैसे जड़ निष्प्राण पदार्थ के लिये कनकप्रिय ने प्रजा का प्रेम खोया और अस्वास्थ्य तथा असाध्य बीमारियों के कारण अपने जीवन का सहज उपलब्ध सात्विक आनन्द भी गंवा दिया ।
एक दिन जब कनकप्रिय अपने स्वर्ण प्रकोष्ठ का निरीक्षण कर रहा था, तब एक कोने में उसे एक प्रभापुंज दिखाई दिया। जैसे ही उसने कदम बढ़ाये उसे एक दिव्य पुरुष अपनी ओर आता दृष्टिगोचर हुआ । पुरुष बोला राजन्, तेरा कल्याण हो । मैं तुझे अभयदान देता हूँ कि तू इतना अवश्य बता कि तूने आज तक क्या कमाया है। कनकप्रिय इस प्रश्न का उत्तर देते समय गर्व से फूल उठा । उसने अभिमान पूर्वक वह सारा भण्डार उस दिव्य पुरुष को बता दिया । सोने का कभी समाप्त न होनेवाला कोष देखकर उस पुरुष ने कहा राजन् ! तुम्हारा स्वर्ण प्रेम देखकर मुझे संतोष हुआ है। मैं तुम्हें वरदान देना चाहता हूँ। राजा की खुशी का ठिकाना न रहा । उसने तत्काल कहा आप मुझे ऐसा वरदान दे कि मैं जिस वस्तु को स्पर्श कर लूं वह सोना बन जाए । दिव्य विभूति ने कहा ऐसा ही होगा । कल प्रातः की पहली किरण के साथ तुम्हें वह शक्ति मिल जाएगी। राजा अति प्रसन्न हुआ । रात उसकी बड़ी बेचैनी में व्यतीत हुई । पलकों पर ही प्रातः हो गया । बिस्तर छोड़ते ही सबसे पहले उसने निसैनी मंगवाई और उसे स्पर्श किया वह स्वर्ण की हो गई । वह बावला हो उठा उसने नौकर को बुलाया और रथ मंगवाया। रथ में बैठकर वह बगीचे में सैर के लिये गया । बगीचे में सुन्दर-सुन्दर वृक्ष पत्तियां और फूल खिले हुये थे । किन्तु राजा का ध्यान केवल सोने पर था । उस पर पागलपन सवार था । उसकी आंखों पर लोभ का चश्मा चढ़ा था । उसने एक वृक्ष को स्पर्श किया और उसका तना सोने का हो गया। फूल-फल, पत्तियाँ सभी सोने की होगयी । फिर उसने आव देखा न ताव सारा बगीचा उसकी पत्ती-पत्ती छू डाली । सारा बगीचा सोने का हो गया । बावडी सोने की, कुँआ सोने का, हौज कुंड सोने के, चारों ओर सोना ही सोना । ऐसे में राजा के आनन्द की सीमा न रही।
राजा घर आया । वह बहका हुआ था । पसीने में ऐड़ी से चोटी तक डूबा था । भूख के मारे बुरा हाल था, अधर प्यास से सूख रहे थे । सेवक आया और उसने कहा पधारिये । राजा ने पानी मंगाया । गिलास लाया गया, किन्तु जैसे ही राजा ने उसे स्पर्श किया गिलास पानी सहित सोने का हो गया । दूसरा गिलास मंगाया गया । उसका भी वही हाल हुआ । तब राजा ने दूध मंगाया । किन्तु उसकी भी वही हालत हुई । भोजन का थाल आया उसका भी वही परिणाम हुआ। सब कुछ सोने का हो गया । सोने की भूख ने गजब ढा दिया । राजा भूख-प्यास से छटपटाने लगा । उसकी भूख-प्यास को शान्त करने वाला कोई सामान ही नहीं रहा । सब सोना हो गया । राजा की पुत्री बगीचे में गई । उसे रंग-बिरंगे पुष्पों का बड़ा शौक था । जब वहां उसे फूल नहीं दिखे तब वह माली पर बिगड़कर बोली किस दुष्ट ने इस बगीचे की दुर्दशा की है? उसे मैं अपने पिता राजा से कड़ा से कड़ा दण्ड दिलाऊँगी । राजकुमारी को ज्ञात नहीं था कि यह सारी करतूत उसके पिता की है। घर लौटकर वह
हेमेल्डर ज्योति हमे ज्योति
38
हेमेन्द्र ज्योति हेमेन्द्र ज्योति
Use