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श्री राष्टसंत शिरामीण अभिनंदन गंथा
संत ने उत्तर दिया - बन्धुओ ! तुम जो कुछ देख रहे हो वह असत्य नहीं है । पर यह शरीर तो मैं नहीं हूं। मैं जो कुछ हूँ वह अपनी आत्मा से हूँ । भला बताओ । मेरी आत्मा को कहां चोट लगी है? उसका तो कुछ भी नहीं बिगड़ा, वह जैसी की तैसी है । रही बात वस्त्र-पात्र छीन ले जाने की । उसके लिये भी तुम किसलिये दुःख करते हो? वे वस्तुएं मेरा धन नहीं थी । मेरा धन मेरी आत्मा के गुण हैं और वे सब सुरक्षित है । एक भी उनमें से छिना नहीं गया । कोई उन्हें छीन भी कैसे सकता है?
संत की बात सुनकर लोगों की आंखें खुल गई और वे सोचने लगे - महाराज श्री का उपदेश अभी तक हमने अधूरा सुना था, आज ही सच्चा उपदेश सुन सके हैं । अन्यत्व कहने का अभिप्राय यह है कि यही यथार्थ और भावना का सच्चा उदाहरण हैं ।
समाधि भाव की महत्ता : एक बार अनेक यात्री एक बड़े जहाज में बैठकर यात्रा कर रहे थे । वहां कुछ कार्य न होने से कुछ यात्री तत्त्वचर्चा में लगे हुए थे और समाधिभाव की महत्ता पर विशद चर्चा कर रहे थे।
ठीक उसी समय समुद्र में अचानक ही भीषण तूफान आ गया और वह जहाज पत्ते के समान डगमगाने लगा। यात्री यह देखकर बहुत घबराने लगे और बढ़-बढ़कर समाधिभाव की महत्ता को प्रमाणित करनेवाले यात्री व्याकुल होकर इधर से उधर दौड़ भाग करने लगे ।
किन्तु एक व्यक्ति जो शुरू से ही चुपचाप बैठा था और वाद-विवाद में तनिक भी भाग नहीं ले रहा था । वह तूफान से जहाज के डोलते ही आंखें बन्द कर समाधि में लीन हो गया । न उसके चेहरे पर भय का भाव था और न ही व्याकुलता का । आत्मिक शांति की दिव्य आभा उसके मुख मुण्डल को और भी तेजस्वी बनाये हुये थी।
कुछ देर पश्चात् तूफान शांत हुआ और जहाज पुनः पूर्ववत् चलने लगा । यह देखकर यात्री शांत हुए तथा अपनी घबराहट पर अधिकार पाते हुये सुस्थिर होकर बैठ गये । उन्होंने देखा कि तूफान के रूक जाने पर ही समाधिस्थ व्यक्ति ने भी अपनी आंखें खोली हैं | और ध्यान समाप्त किया है ।
सभी व्यक्ति आश्चर्य से उसे देखने लगे और बोले - भाई ! तूफान के कारण हमारे तो प्राण सूख गये थे पर तुम हो कि और भी आत्म-समाधि में लीन हो गये थे । क्या तुम्हें जहाज के डगमगाने से प्राण जाने का भय नहीं हुआ था।
वह व्यक्ति तनिक हंस कर बोला - बन्धुओ ! जब तक मैंने धर्म का मर्म और समाधि भाव का अर्थ नहीं समझा था, तब तक मैं भी तूफान से बहुत डरता था । किन्तु तुम लोगों की समाधि पर की गई तत्वचर्चा से मैंने उसका महत्व समझ लिया और समुद्र में तूफान के आते ही मैं समाधि पूर्वक अपने भीतर के विशाल धर्म द्वीप पर जा बैठा। मैंने समझ लिया था कि इस द्वीप तक तूफान से उठी हुई कोई भी लहर नहीं आ सकती । उस ज्ञानी पुरुष की यह बात सुनते ही प्रश्न करने वाले सभी बड़े लज्जित हुए और समझ गये कि खूब तर्क-वितर्क कने से और धर्म के मर्म को शब्दों के द्वारा समझ लेने से ही कोई लाभ नहीं होता । लाभ तभी होता है, जबकि थोड़े कहे गये या सुने हुए को जीवन में उतारा जाय । कहने का तात्पर्य यही है कि जो प्राणी धर्म की शरण लेता है, धर्म उसकी रक्षा अवश्य करता है ।
ज्ञान की अमर ज्योति एक आचार्य थे, उनके पास अनेक शिष्य अध्ययन करते थे । उनमें से कुछ ज्ञानी और कुछ परिश्रमी थे । उन सब शिष्यों में एक मन्द बुद्धि शिष्य भी था । उसकी अवस्था परिपक्व थी । आचार्य उसे पढ़ाने का बहुत कुछ प्रयत्न करते थे, पर उसे कुछ भी समझ में नहीं आता था । अपनी बुद्धि की मन्दता पर उसे बहुत दुःख होता था और इसलिये वह बड़ा खिन्न रहता था ।
हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति
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