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श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन था
तुम्हारी पत्नी सेठ के मकान से चुराया हुआ सोने का सिक्का बेचते हुए पकड़ी गई । तुम भी चोरी करते हुये पकड़े गये। इससे स्पष्ट मालूम पड़ता है कि तुम चोर हो । तुम्हारे पास धन का अभाव नहीं है । परन्तु तुमने धन का दुरुपयोग किया। व्यापारियों सम्बन्धियों और मुझे ठगने के अपराध का दण्ड यह है कि तुम्हें सिर से पैर तक पीटा जाए तथा सेठ के भवन में चोरी करने के अपराध में तुम दोनों को फांसी पर चढा दिया जाए ।"
दण्ड सुनकर शांतिलाल और उसकी पत्नी पार्वती दोनों गिड़गिड़ाने लगे । इस पर न्यायाधीश और सेठ को उन पर दया आ गई । उन्होंने आदेश दिया कि बेईमानी और धोखेबाजी से कमाये हुये धन को इन दोनों के गले में बांधकर इन्हें बाजार मे घूमाते हुये इनके घर पहुँचाया जाए ।"
इसके बाद सेठ ने नगर के राजा से मिल कर सारे नगर में यह घोषणा करवा दी कि कोई भी व्यापारी इन दोनों को धन के बदले खाने-पीने का और पहनने का सामान न दे । जो व्यापारी इस आदेश का पालन नहीं करेगा, उसे फांसी का दण्ड दिया जाएगा ।"
घर आने पर शांतिलाल और उसकी पत्नी बहुत ही प्रसन्न थे कि धन भी मिला और प्राण भी बचे पर पांच छ: दिनों में उन्होंने सोने के कुछ सिक्के देकर खाने-पीने का सामान क्रय करना चाहा । परन्तु सभी व्यापारियों ने उन्हें सामान देने से स्पष्ट मना कर दिया । जब उन्हें कुछ भी सामान नहीं मिला तो परेशान होकर वे पुनः राजा के दरबार में उपस्थित हुये। उन्होंने सारी सम्पति राजा के चरणों में रखकर उनसे विनम्र प्रार्थना की- "अन्नदाता! हमारी यह सम्पत्ति लेकर, जिन्हें आवश्यकता हो उनमें बांट दीजिये, सेठ भी वहीं था, उसने भी यही कहा - जनता को यह ज्ञात हो जाए कि दौलत को दबाकर रखने से नहीं किन्तु सदुपयोग करने से सुख मिलता है ।"
3 सच्चा उपदेश एक संत यत्र-तत्र विचरण करते हुए किसी ऐसे प्रदेश में पहुँच गए, जहाँ के व्यक्ति बड़े क्रूर और निर्दयी थे। पशुओं को मारकर खाना तो उनके लिये साधारण बात थी, वे मनुष्यों को मारने में भी नहीं हिचकिचाते थे ।
संत ने जब यह सब देखा तो उनके हृदय में बड़ी पीड़ा हुई और वे लोगों को अहिंसा धर्म है और हिंसा घोर पाप है, उन्हें नाना प्रकार से अपने उपदेशों के द्वारा समझाने का प्रयत्न करने लगे । फलस्वरूप अनेक व्यक्तियों के हृदय पर उनके उपदेशों का मार्मिक प्रभाव पड़ा और उन्होंने हत्या करना त्याग दिया ।
उनमें ऐसे व्यक्ति भी थे जो धर्म के मर्म को अपने पास भी नहीं फटकने देते । जब उन्होंने देखा कि हमारी जाति के अनेक व्यक्ति संत की बातों में आकर अपने जन्म जात व्यवसाय हिंसा को छोड़ रहे हैं तो उन्हें बड़ा क्रोध आया और अवसर पाकर उन्होने संत को बहुत पीटा तथा उनके वस्त्र, पात्र आदि सब छीन लिये । संत लहूलुहान होने पर भी पूर्ण शांति एवं समभाव पूर्वक ध्यान में बैठे रहे । जब उनके कुछ अनुयायी उधर आये और संत की ऐसी दशा देखी तो चकित और अत्यन्त दुःखी होकर बोले - भगवन् ! दुष्टों ने आपकी ऐसी दुर्दशा की और सब कुछ छीन लिया, तब भी आपने आवाज लगा कर हमें क्यों नहीं अवगत कराया । आपकी आवाज सुनकर हम में से कोई न कोई तो आ ही जाता और उनको अपने किये का मजा चखा देता ।
संत अपने भक्तों की यह बात सुनकर अपनी स्वभाविक शांत मुद्रा और मुस्काराहट के साथ बोले - भाइयो ! क्या कहते हो तुम? मेरी दुर्दशा करने वाला और मुझसे अपना सब कुछ छिनने की शक्ति रखने वाला इस संसार में हैं ही कौन?
संत की बात सुनकर वे हितैषी व्यक्ति बहुत चकराये और आश्चर्य से बोले- हम स्वयं देख रहे हैं कि उन लोगों ने आपके शरीर को लहूलुहान कर दिया है और आपकी सब वस्तुएं छीन कर ले गये हैं । आंखों देखी भी क्या गलत हो सकती है भगवन् ?
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