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श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन था
एक वयोवृद्ध पण्डित ने कहा - महाराज! आपकी बात समझ में तो आती है । परन्तु हमारे पास शास्त्र का आधार है | जब कि आपके पास वह आधार नहीं है । शास्त्र एवं पुराणों में सूर्य को जलदान का विधान हैं, इसलिये हम लोग हजारों पीढ़ी से इस कार्य को कर रहे हैं । भला शास्त्र की बात से कौन इन्कार कर सकता है? शास्त्रों के प्राचीन विधान से इन्कार कैसे किया जा सकता है?
सन्त ने गंभीर होकर कहा- शास्त्र जो कुछ कहता है वह अल्पसमय के लिये अलग रख दीजिये । मैं आपसे केवल यही पूछता हूँ कि इस विषय में आपकी अपनी बुद्धि क्या कहती है और वह क्या निर्णय करती है? क्या आपकी बुद्धि में यह तर्क संगत है? सबसे बड़ा शास्त्र तो आपकी बुद्धि का है । पहले देखो और सोचो कि इस विषय में तुम्हारी बुद्धि का क्या निर्णय है? शास्त्र के नाम पर जो कुछ चल रहा है उसके अच्छे और बुरे परिणामों को तौलने की तुला हमारी बुद्धि ही है । मानव जीवन का सबसे बड़ा शास्त्र चिन्तन और अनुभव है । जिसे आज शास्त्र कहा जाता है आखिर वह भी तो किसी पुत्र के व्यक्ति विशेष का चिन्तन और अनुभव ही है । बुद्धि के बिना तो शास्त्र के मर्म को भी नहीं समझा जा सकता। इसलिये जीवन और जगत के प्रत्येक व्यवहार में बुद्धि की बड़ी आवश्यकता है । यह माना कि शास्त्र बड़ा हैं और उसकी शिक्षा देने वाला गुरु भी बड़ा है । यदि शास्त्र भी हो और गुरु भी हो, पर शास्त्र के गंभीर रहस्य को और गुरु के उपदेश के मर्म को समझने के लिये बुद्धि न हो तो क्या प्राप्त हो सकता है? शास्त्र और गुरु केवल मार्ग दर्शक हैं । सत्य एवं असत्य का निर्णय अच्छे और बुरे का निश्चय आखिर बुद्धि को ही करना है । एक ही शास्त्र के एक ही वचन का अर्थ करने में विचार भेद हो जाने पर उसका निर्णय भी अन्ततोगत्वा बुद्धि ही करती है । उपयोगिता अनुपयोगिता का निर्णय हजारों वर्षों पश्चात् कौन करता है? पाठक की विवेकशील बुद्धि ही उक्त निर्णय करने की क्षमता रखती है। _ज्ञानी और अनुभवी संत की इस तथ्यपूर्ण बात को सुनकर वे सब भक्त और पण्डित बड़े प्रसन्न हुए । सन्त के अनुभव से अनुप्राणित तर्क के समक्ष वे सब नतमस्तक हो गये । संत के समझाने का ढंग इतना मधुर था कि संत की बात उन सभी के हृदय में आसानी से उतर गई और उन लोगों ने यह समझ लिया कि जीवन में शास्त्र और गुरु का महत्व होते हुए भी अन्त में सत्य एवं तथ्य का निर्णय बुद्धि ही को करना पड़ता है ।
सन्त के कहने का अभिप्राय था कि जल यहाँ है । और सूर्य दूर है, भला यहाँ का जल सुदूर सूर्य लोक में कैसे तृप्ति का साधन हो सकता है? जल यहाँ है और खेत सुदूर प्रदेश में है । यहाँ का गंगा जल उन खेतों की इतनी दूर कैसे सिंचाई कर सकता है? जहाँ कारण है, वही उसका कार्य भी हो सकता है।
सुख का मंत्र किसी नगर में रामलाल नामक एक सेठ रहता था । उसकी दुकान बहुत छोटी था । उसमें केवल आवश्यकता का सामान ही रहता था । कभी-कभी वह एक थैली में सामान भरकर आसपास के ग्रामों में भी सामान बेचने जाया करता था। दिन भर में जो कमाई करता उसी में परिवार का पालन पोषण करता था ।
उसके परिवार में पति-पत्नी के अतिरिक्त दो पुत्र और दो पुत्रियां थी । इस तरह कुल छ: प्राणी का परिवार था । धन के नाम उनके पास बाप दादा का बनाया कच्चा मकान था । नकद पूंजी नहीं थी । परिवार के सभी सदस्य जो समय पर मिल जाता खाकर संतोष के साथ जीवन व्यतीत करते थे । नगर में उसकी सादगी व रहन सहन की बड़ी चर्चा होती थी । जब कि नगर के अन्य व्यापारी गण लालची व अव्यवहार कुशल थे । सुखी होते हुये भी सुखी नहीं थे।
एक बार उस नगर में एक दुःखी इधर-उधर भटकता हुआ आया और किराने की बड़ी दुकान देखकर उसके मालिक के पास गया और कहने लगा - "ओ सेठ साहब ! ओ सुखी भाई ! मुझे सुख का कोई मंत्र दीजिये, कोई उपाय बताइये, जिसे अपनाकर मैं भी सुखी हो जाऊँ ।"
हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति 51
हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति
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