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श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ
सेठजी ने मुनीम की सलाह पर ध्यान नहीं दिया । समय अपना काम बराबर करता रहा । अट्ठाईस दिन व्यतीत हो गये और केवल दो दिन शेष रह गये । फिर भी सेठजी खाने-पीने और ऐश-आराम में ही व्यस्त रहे। अन्त में वे दिन भी समाप्त हो गये । राजा की गाड़ी लेने आ पहुँची । आरक्षकों ने कहा - चलिये सेठजी, शीघ्रता कीजिये।
सेठजी को वही टोपा और वहीं जांघिया पहना कर उसी अन्ध कूप में उतार दिया गया । सेठजी कुएँ में पड़े पड़े सोचने लगे- हाय, कितनी बड़ी भूल मुझसे हुई । मैंने प्रमाद में सुअवसर खो दिया । मुक्त होने के लिये प्रयत्न करने का जो अवसर मिला था, उसका मैंने सदुपयोग नहीं किया और राग-रंग में ही वह दुर्लभ समय खो दिया। वास्तविक हित की बात कहने वाला तो एक मुनीम था । मैंने उसका कहना न माना तो पुनः यह दिन देखना पड़ा। न जाने किस पुण्य के योग से कुएँ से बाहर निकलने का अवसर मिला था । अब वह अवसर फिर नहीं मिल सकता हैं? मैंने मूर्खता करके अवसर गंवा दिया, वह वापिस नहीं आ सकता । अब तो मरने के पश्चात् ही बाहर निकल सकूँगा । इस तरह पश्चाताप करते-करते ही सेठजी का जीवन कुएँ में पूरा हो गया ।
परिवर्तन एक किसान ने दूसरे किसान से भूमि क्रय की । किसान क्रय की गई भूमि पर जब मकान बनवाने लगा तो नींव खोदते समय उसमें से मोहरों से भरा एक चरू निकल पड़ा । श्रमिकों ने किसान को धन निकलने की सूचना भेजी । तब उस किसान ने दूसरे किसान को जिससे वह भूमि खरीदी थी, बुलाकर कहा- यह मोहरें आपकी हैं। इन्हें आप ले जाइये।
दूसरे किसान ने उत्तर दिया - भूमि आपको बेची जा चुकी हैं । इसमें जो भी निकले वह आपका ही है । यह मोहरें आपके भाग्य से निकली है । इन पर आपका अधिकार है ।
भू-स्वामी किसान मानता था कि मैं केवल भूमि का स्वामी हूँ । मैंने भूमि का मूल्य दिया धन का नहीं । इसलिये मैं इन मोहरों का अधिकारी नहीं हूँ । इनका अधिकारी भूमि का पहला स्वामी है । परन्तु जब पहले स्वामी ने उस सम्पत्ति को स्वीकार नहीं किया, तब उसने राजा को सूचना दी और कहा - आप भू-स्वामी हैं । आप उन मोहरों को अपने भंडार गृह में मंगवा लीजिये ।
राजा ने कहा - मैं जो राजस्व प्राप्त करता हूँ । उसके अतिरिक्त धन का अधिकारी नहीं। यह मोहरें मेरी नहीं है। मुझे दूसरे की सम्पत्ति की आवश्यकता नहीं है ।
राजा से भी निराश होकर किसान पंचों के पास गया और उन मोहरों को संभाल लेने की बात कहीं । कहा यह मोहरें किसी व्यक्ति की नहीं, सार्वजानिक है, इसलिये पंच इन्हें संभाल लें ।
परन्तु पंचों ने भी उन्हें संभाल लेने से मनाकर दिया । उन्होंने कहा -किसी सार्वजनिक कार्य के लिये अभी धन की आवश्यकता नहीं है | बिना आवश्यकता यह भार क्यों वहन किया जाय?
इस तरह किसी ने भी उन मोहरों को स्वीकार नहीं किया और वे अनाथ की तरह पड़ी रही । उन्हें सबने ठुकरा दिया।
आधी रात्रि व्यतीत हो गई । भू-क्रय करने वाले ने विचार किया - मैं कितना मूर्ख हूँ कि अपनी भूमि में निकली मोहरों को संभालने के लिये इधर-उधर भटकता रहा । मेरी भूमि में निकली मोहरें मेरी ही है, किसी और की नहीं हो सकती।
भूमि विक्रय करने वाले का भी मस्तिष्क बदल गया और वह उन मोहरों को लेने के लिये आ धमका । उसने दावा किया कि यह मोहरें मेरी है तेरी नहीं । तूने केवल भूमि का मूल्य दिया है, इन मोहरों का नहीं ।
समयानुसार यह परिवर्तन सर्व व्यापी था, अतएव राजा ने भी अपने कर्मचारियों को मोहरें ले आने के लिये भेज दिये और उधर पंच भी आ गये ।
सब लोग परस्पर विवाद करने लगे और उन मोहरों पर अपना अपना अधिकार स्थापित करने लगे ।
हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति
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