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श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ
बेचारा लकड़हारा पत्नी की बात सुनकर अपनी भूल पर दुःखी हुआ और बोला - "भाग्यवान! अभी इस एक के अंक की परीक्षा तो हो जाने दे । यदि यह सचमुच ही मुझे एक रुपया प्रतिदिन दिलाएगा तो बाद में देख लूँगा । संत मेरे मार्ग में ही रहते हैं ।"
इस घटना के बाद दो चार दिन निकल गये और प्रतिदिन लकड़हारे को अपनी लकड़ी का एक रुपया प्रतिदिन मिलने लगा । यह देखकर तो लकड़हारा लालच में आ गया और उसने एक दिन पुनः जाकर संत से कहा - "महाराज! आपकी कृपा से मुझे अब एक रुपया प्रतिदिन मिल जाता है और किसी तरह मैं बाल-बच्चों सहित पेट भर लेता हूँ । किन्तु हम में से किसी के तन पर पूरे वस्त्र नहीं है तथा शीत ऋतु आ रही हैं, अतः आप मेरी हथेली पर एक अंक के आगे एक बिन्दी और लगा दें तो हमें पहनने को वस्त्र और ओढ़ने बिछाने के लिये विस्तर मिल जायेंगे । आपकी बड़ी कृपा होगी यदि आप ऐसा कर दें ।"
महात्माजी ने दया करके एक के आगे बिन्दी लगाकर वहाँ दस बना दिये । अब लकड़हारा को प्रतिदिन दस रुपये प्राप्त होने लग गये । पर लकड़हारे और उसकी पत्नी का लोभ बढ़ता ही गया ।
लोभ के वशीभूत होकर लकड़हारा कई बार महात्माजी के पास पहुँचा तथा सुन्दर मकान तथा पत्नी के लिये आभूषण आदि की आवश्यकताएं बताकर एक के अंक पर कई बिन्दियां लगवाता चला गया ।
परिणाम यह हुआ कि वह अपने नगर का धनाढ्य बन गया और अत्यन्त विलासिता पूर्वक सुख से जीवन व्यतीत करने लगा । अतुल वैभव प्राप्त करके भी लकड़हारे को संतोष नहीं हुआ और वह फिर एक दिन संत के पास जा पहुँचा । सन्त उसे देखकर चकित हये और बोले - "भाई ! अब तो तुम इतने बड़े सेठ होगये हो, अपार दौलत तुम्हारे पास है अब क्या चाहते हो?"
वह बोला - "भगवन् ! आपकी कृपा जब मेरे ऊपर हो गई है तो एक छोटा-मोटा राज्य भी मिल जाए तो क्या बड़ी बात है? इतनी कृपा और हो जाए आपकी तो जीवन पर्यन्त आपका एहसान नहीं भूलूँगा ।"
_संत उसकी बात सुनकर बड़े चकित हुए और मन में क्रोध आया, सोचने लगे – “इस व्यक्ति को मैंने एक लकड़हारे से इतना बड़ा सेठ बना दिया तब भी इसकी तृष्णा समाप्त नहीं हुई?"
सन्त ने उसका हाथ पकड़कर हथेली पर अंकित सभी अंक मिटा दिये । लालच के कारण वह पुनः पूर्व की स्थिति में आ गया ।
भाग्य का चक्कर एक सेठ था उसके पास अपार सम्पत्ति थी । सम्पत्ति के मद में वह आय से ज्यादा धन खर्च करने लगा । परिणाम यह हुआ कि वह थोड़े ही दिनों में ऋणी हो गया । ऋण चुकाने के लिये उसने मकान भी बेच दिया । वह दर-दर की ठोकरे खाता हुआ एक रात घर से निकल पड़ा । वह नंगे पैर था और माथे पर टोपी या पगडी भी नहीं थी।
राह चलते चलते वह थक कर चूर हो गया । भूख के मारे चक्कर आने लगे । जैसे-तैसे वह बहिन के घर जा पहुंचा। जब द्वार पर पहुँचा तो दासी ने भीतर जाकर सूचना दी मालकिन आपके भाई आए हैं ।
बहिन बाहर आई और ज्यों ही उसने अपने भाई की दयनीय दशा देखी तो उसे ध्यान आया इसे भाई कहने से मेरा अपमान होगा । यह सोच कर उसने सहसा कह दिया - "मेरे तो कोई भाई नहीं है ।"
बहिन ने अपमान के साथ उसे निकाल दिया । उसकी आशा पर तुषारापात हो गया । जब वह अपनी बहिन के घर से तिरस्कृत होकर निकला तो उसके हृदय पर गहरा आघात लगा । उसने सोचा अन्यत्र कहीं जाकर ठोकरे खाने की अपेक्षा इस अभिशप्त जीवन का अन्त कर देना ही अच्छा है ।
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