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श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ
चतुर राहगीर ब्राह्मण किसी गाँव में एक ब्राह्मण रहता था । वह दोनों समय गाँव में से भिक्षा मांग कर लाता और अपनी उदरपूर्ति करता था । वह पढ़ा लिखा भी ज्यादा नहीं था । इस कारण उसे ज्योतिष का ज्ञान भी पूरी तरह नहीं था । फिर भी ग्रामवासी ब्राह्मण के नाते उसे भिक्षा देते थे ।
एक दिन अचानक उस गाँव में एक विद्वान ब्राह्मण आकर रहने लगा । वह ज्योतिष में पारंगत था । धीरेधीरे उसने ग्रामवासियों पर अपना प्रभाव जमा लिया । पहले वाले ब्राह्मण की रोजी रोटी बन्द हो गई । घर में जो कुछ जमा था वह भी समाप्त हो चला । नाजुक स्थिति देखकर एक दिन वह गाँव छोड़कर दूसरे गाँव को चल दिया।
मार्ग में उसने भोजन बनाकर खा लेने का विचार किया । सोचा इससे विश्राम भी मिल जाएगा और मध्यान्ह का समय भी टल जाएगा । वह पास के एक गाँव में गया और दुकानदार से आटा, दाल, घी आदि भोजन सामग्री क्रय कर लाया। उसने बेर के एक वृक्ष के नीचे दाल बाटी बनाई । बाटियां सिक गई तो घी में तर करके थाली में रख दी । उसी समय एक दूसरा पथिक उधर से आ निकला । उसने ब्राह्मण देवता को देखकर मन में विचार किया चलो, इसका साथ हो जाएगा तो मार्ग अच्छा तरह कट जायेगा । वह भी उसी वट वृक्ष के नीचे बैठ गया।
वह भी भूखा था और उसके पास भूख शांत करने का कोई साधन नहीं था । घी से तर बाटियों पर उसकी दृष्टि पड़ी तो मुँह में पानी आ गया । उसने विचार किया इसके पास बहुत बाटियां है । अकेला थोड़े ही खा जाएगा। कुछ तो मुझे देगा ही।
इस प्रकार सोचकर उसने ब्राह्मण के हृदय को जीतने का विचार किया । इसका दिल जीत लंगा तो क बाटियां मुझे भी दे देगा । वह ब्राह्मण के पास गया और बोला - जोशीजी ! आपने बाटियां ऐसी बनाई है मानों बिना खम्बे की छतरी हो ।
ब्राह्मण ने अपनी बाटियों की प्रशंसा तो सुन ली पर उसका दिल नहीं पसीजा । उत्तर में ब्राह्मण ने एक शब्द भी नहीं कहा, मौन ही रहा ।
तब दूसरे राहगीर ने विचार किया, इसकी इतनी खुशामद की, मक्खन लगाया पर यह तो पसीजा ही नहीं। यहां मिठास से काम चलने वाला नहीं, कड़वेपन से ही काम लेना चाहिये । यह सोचकर उसने पुनः कहा । पंडितजी ! इस भोजन पर मेरी दृष्टि लग चुकी है । इसलिये यदि मुझे खिलाए बिना खा लिया तो तुम्हारे पेट में ऐसा दर्द उठेगा कि मर जाओगे।
ब्राह्मण भी बड़ा पक्का था । उसने कच्ची गोलियां नहीं खाई थी । अतः उसने उत्तर दिया - हे राहगीर ! मैं तो डाकी हूँ । यदि इससे दुगुना और चौगुना भी खा जाऊँ तो भी डकार आने वाली नहीं । तू मेरी चिन्ता मत कर।
इतना सुनते ही राहगीर ने सोचा इन तिलों में से तेल निकलने वाला नहीं है । मुझे यहां से चल देना चाहिये और दूसरी जगह भोजन का उपाय करना चाहिये । यह सोच कर वह वहां से चल दिया ।
ईमानदार सेठ एक युवक अपने घर से एक हजार रुपया लेकर धन कमाने की दृष्टि से निकला । वह अपने परिजनों से कह गया कि खूब कमाई कर लूंगा । तब आनन्द के साथ वापिस आऊँगा । यह कहकर वह चल दिया ।
चलते-चलते वह युवक उस देश में जा पहुँचा जहाँ बसरा खाड़ी है और जहाँ मोती उत्पन्न होते हैं । वहाँ मोती निकालने वाले गोता खोर रहते हैं ।
उस युवक ने वहाँ पहुँच कर गोता खोरों से कहा - अच्छा एक गोता मेरी ओर से लगाओ । मैं अपना भाग्य आज माना चाहता हूँ ।
सौ रुपये लेकर गोता खोर, पानी की तह में गया और मुट्टी भरकर सीप लेकर तैरता हुआ किनारे आ गया । पानी में निकल कर उसने उस युवक के सामने मुट्ठी खोली । मगर भाग्य की बात कि उनमें से एक में भी मोती' नहीं निकला।
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