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श्री राष्टसंत शिरमणि अभिनंदन गंथ
वह व्यक्ति पत्र लेकर राज्यसभा में पहुँचा । राजा को उसने पत्र प्रस्तुत किया । राजा ने उस पत्र को पढते ही उसे दो पहर का राजा घोषित करके राजसिंहासन पर बैठा दिया । राजा ने उसके द्वारा की गई सेवा की सबके सामने भूरि-भूरि प्रशंसा की ।
जब वह राजा के रूप में राज्य सिंहासन पर बैठ गया तो राजा अपने महल में चला गया । उस नवीन बने हुये राजा को सभी राज्य कर्मचारियों ने खड़े होकर अभिवादन किया ।
उसने सबसे पहले दीवान से पूछा कि तुम्हें क्या वेतन मिलता है? दीवान ने हाथ जोड़कर उत्तर दिया - अन्नदाता ! मुझे बहुत कम वेतन मिलता है ।
यह सुनते ही राजा ने कहा कि इतना वेतन तो तुम्हारे कार्य को देखते हुये बहुत अधिक है । और तुम कहते हो कि मुझे बहुत कम वेतन मिलता है । अतएव आज से तुम्हारे वेतन में से सौ रुपये कम किये जाते हैं । इस प्रकार कोतवाल, सिपाही आदि सभी राज्य कर्मचारियों के वेतन में से कटौती करके सबको नाराज कर दिया ।
इतने में ही गाँव के सभी दुकानदार व्यक्ति भी अवसर का लाभ उठाने की दृष्टि से राज्य सभा में उपस्थित हो गए। उन्होंने सोचा कि आज राजा हम सब दुकानदानों को मालामल कर देगा । परन्तु जब उन्होंने अपने-अपने बिल राजा की सेवा में प्रस्तुत किये तो नवीन राजा ने आदेश दिया कि आप सब अभी यहीं बैठो । मैं भोजन करने के बाद सबके बिलों पर गौर करूँगा ।
राजा भोजन करने के लिये अलग कमरे में चला गया । राजा भोजन सामग्री देखकर, उसके मुँह में पानी आ गया। उसने स्वप्न में भी इन चीजों के दर्शन नहीं किये थे । वह भोजन करने में इतना तल्लीन हो गया कि अपने समय का भी ध्यान नहीं रख सका और एक-एक चीज का स्वाद लेकर खाने लगा । खा पी चुकने के बाद वह फिर राज्य सभा में पहुँचा। जब उसका ध्यान समय की ओर गया तो वह बड़े ही असमंजस में पड़ गया । अतः सभा बर्खास्त करके वह सीधा खजाने की ओर पहुँचा । खजांची अपने घर गया हुआ था । राजा ने नौकर को उसे बुलाने के लिये घर भेजा । खजांची आया और उसने ज्यों ही खजाने का ताला खोला कि दो पहर समाप्त हो जाने की घंटी बज उठी । निराश होकर सबके द्वारा तिरस्कृत होते हुय खाली हाथ लौटना पड़ा । वह अपने मन में पश्चाताप करने लगा कि दो पहर के राज्य से भी मैं लाभ नहीं उठा सका और निर्धनता भी दूर नहीं कर सका ।
लालच का फल एक लकड़हारा प्रतिदिन लकड़ियां काटने के लिये जंगल में जाया करता था । दिन भर वह लकड़ी काटता और सांयकाल के समय जब भारी बोझ लेकर लौटता तो उसे दो चार आने उन्हें बेच कर प्राप्त होते थे । परिवार में पत्नी और छोटे-छोटे बच्चे थे । अतः उन इन गिने पैसों से सबकी उदरपूर्ति होना कठिन हो जाता था और इसी कारण लकड़हारा काफी दुःखी रहता था ।
लकड़हारा जिस मार्ग से प्रतिदिन जाता था उसी मार्ग पर एक वृक्ष के नीचे एक संत तपस्या करते थे । वे उस दुःखी लकड़हारे को प्रतिदिन उधर से जाते हुये तथा दिन भर के परिश्रम स्वरूप एक गट्ठा लकड़ी को लाते हुयें देखा करते थे।
एक दिन उनहोंने लकड़हारे से उसके विषय में पूछा- लकड़हारे ने अपना पूर्ण दुःखद वृतान्त उन्हें बताया । संत को दया आई और उन्होंने यह सोच कर कि दो-चार आने से इसका परिवार सदा भूखा रह जाता है, उन्होंने लकड़हारे की हथेली पर एक अंक लिख दिया और कहा - "आज से तुम्हें प्रतिदिन एक रुपया अपनी लकड़ी का मूल्य मिल जाया करेगा।"
लकड़हारा बड़ा प्रसन्न हुआ और खुशी के मारे दौडता हुआ ही अपने घर लौटता और अपनी पत्नी से उसने समस्त घटना कह सुनाई । पत्नी बड़ी चतुर थी बोली - अरे ! जब संत ने दया करके तुम्हारी हथेली पर एक का अंक लिखा था तो तुमने उस पर एक बिन्दी क्यों न लगवाली? क्या तुम्हें इतना भी नहीं सूझा?"
हेमेन्द्र ज्योति * हेगेन्द्र ज्योति 27
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